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________________ [ २.२ ज्ञानार्णवः 51 ) नासादयसि कल्याणं न स्वतत्त्वं समीक्षसे । न वेत्सि जन्मवैचित्र्यं भ्रातर्भूतैविडम्बितः ॥२ 52 ) असद्विद्याविनोदेन मात्मानं मूढ वञ्चय । कुरु कृत्यं न किं वेत्सि विश्ववृत्तं विनश्वरम् ॥३ 53 ) समत्वं भज भूतेषु निर्ममत्वं विचिन्तय ।। अपाकृत्य मनःशल्यं भावशुद्धिं समाश्रय ॥४ 51 ) नासादयसि-भ्रातस्त्वं भवान् कल्याणं नासादयसि । न स्वतत्त्वं स्वचैतन्यं समीक्षसे । जन्मवैचित्र्यं न वेत्सि । कथंभूतः। भूतैः प्राणिभिरुपलक्षणात् विडम्बित: ॥२॥ अथ संसारविनश्वरतां दर्शयति । 52 ) असद्विद्या हे मूढ, मूर्ख, विश्ववृत्तं संसारचरितं, विनश्वरं नश्यत्, किं न वेत्सि । कृत्यं स्वहितं कुरु । पुनः मूढस्य कर्तुः संबोधनं कुरुते । मूढ, न आत्मानं वञ्चय । केन । असद्विद्याविनोदेन, असदज्ञानस्वरूपेणेत्यर्थः ॥३॥ अथ भावशुद्धिमाह ।। ____53 ) समत्वं भज-हे सुजन, भूतेषु प्राणिषु समत्वं भज । निर्ममत्वं निर्मायत्वं विचिन्तय । भावशुद्धि समाश्रय । किं कृत्वा। मनःशल्यम् अपाकृत्य दूरीकृत्येति तात्पर्यार्थः ॥४॥ अथ भावशुद्धयर्थ सिद्धान्तोक्तद्वादशभावनाः दर्शयति । हे भाई! तू भूतोंसे प्रतारित किये गये (ग्रहाविष्ट ) के समान न अपने हितको प्राप्त करता है, न वस्तुस्वरूपको देखता है, और न संसारकी विचित्रताका भी अनुभव करता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार पिशाचादिसे पीड़ित पुरुष अपने हित-अहितको नहीं जान पाता है उसी प्रकार इन्द्रियविषयोंमें आसक्त हुआ जीव भी अपने हित-अहितको नहीं जान पाता है ॥२॥ हे मूर्ख ! तू मिथ्याज्ञानमें अनुरक्त होकर अपने आपको मत ठग, किन्तु जिससे आत्महित होता है ऐसे योग्य कार्यको कर । क्या तू संसारकी सब बातोंको-इन्द्रियोंको मुग्ध करनेवाले विषयभोगादिकोंको-नश्वर नहीं जानता है ? अर्थात् तुझे यह समझ लेना चाहिए कि संसारके सब ही पदार्थ नष्ट होनेवाले हैं, स्थिर वहाँ कुछ भी नहीं है ॥३॥ हे भव्य ! तू सब ही प्राणियोंको समान समझ-एकसे राग और दूसरे द्वेष मत कर तथा यह विचार कर कि संसारमें न तो मेरा कोई है और न मैं भी उनका कोई हूँ। ऐसा विचार करते हुए तु अपने मनसे शल्यको-पापवासनाको निकाल दे और भावोंकी विशुद्धिका सहारा ले ले ॥४॥ १.sv CIR न त्वं तत्त्वं । २. P B समीक्ष्यसे । ३. M N L नात्मानं for मात्मानं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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