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________________ ६८ कुछ भी तोड़-मरोड़ कर कह देते हैं । किन्तु उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिए कि पं० गौरीशंकरजी ओझा दिवंगत हैं, उनके सन्दर्भ में जो कुछ लिखें, उसके लिए उनके ग्रन्थ, संस्करण और पृष्ठ संख्या का अवश्य उल्लेख करें; क्योंकि अपनी पुस्तक भारतीय प्राचीन लिपिमाला के लिपि पत्र क्रमांक १, ४, ६ (सभी ई० पू० ) में स्वयं ओझा जी ने ब्राह्मी लिपि में 'न' और 'ण' की आकृतियों में रहे अन्तर को स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया है। अशोक के अभिलेखों में गिरनार अभिलेख के आधार पर निर्मित लिपिपत्र क्रमांक १ ( ईसा पूर्व ३री शती) में उन्होंने 'न' और 'ण' की आकृतियों का यह अन्तर निर्दिष्ट किया है, उसमें 'न' के लिए और 'ण' के लिए ये आकृतियाँ हैं इस प्रकार दोनों आकृतियों में आंशिक निकटता तो है, किन्तु दोनों एक नहीं है। पुनः स्व० ओझाजी ने अशोक के अभिलेख का जो 'लिप्यन्तरण' किया है उसमें भी कहीं भी उन्होंने 'ण' नहीं पढ़ा सर्वत्र उसे अर्थात् न ही पढ़ा है। मात्र यही नहीं उन्होंने इस लिपिपत्र में 'न' के दो रूपों एवं 1 का भी निर्देश किया है और मात्र इतना ही नहीं उन्होंने यह भी बताया है कि मात्रा लगने पर दन्त्य न और मूर्धन्य ण की आकृतियाँ किस प्रकार बनती हैं यथा - निनु4 नो-1 | इसके विपरीत मूर्धन्य ण पर ए की मात्रा लगने पर जो आकृति बनती है, वह बिल्कुल भिन्न है यथा I | इससे यह सिद्ध होता है कि अशोक के काल में ब्राह्मी लिपि में न और ण की आकृति एक नहीं थी। ज्ञातव्य है कि अशोक के अभिलेखों में जहाँ गिरनार के अभिलेख में न ( 1 ) और ण (I) दोनों विकल्प से उत्कीर्ण मिलते हैं, वहाँ उत्तर- पूर्व के अभिलेखों में प्रायः न ( 1 ) ही मिलता है। यह तथ्य पं० ओझाजी के लिपिपत्र दो से सिद्ध होता है । लिपिपत्र तीन जो रामगढ़, नागार्जुनी गुफा, भरहुत और सांची के स्तूप - लेखों पर आधारित है उसमें भी 'न' और 'ण' दोनों की अलग-अलग आकृतियाँ हैं- उसमें न के लिए I और ण के लिए + आकृतियाँ हैं। ई०पू० दूसरी शताब्दी से जब अक्षरों पर सिरे बाँधना प्रारम्भ हुए तो न और ण की आकृति समरूप न हो जाये इससे बचने हेतु 'ण' की आकृति में थोड़ा परिवर्तन किया गया और उसे किञ्चित भिन्न प्रकार से लिखा जाने लगा - -- Jain Education International न L नि 1 नो f ण णी णो ≠ इसी प्रकार लिपिपत्र चौथे से भी यही सिद्ध होता है कि ई०पू० में ब्राह्मी अभिलेखों न और ण की आकृतियाँ भिन्न थीं। लिपिपत्र पाँच जो पभोसा और मथुरा के ई०पू० प्रथम शती के अभिलेखों पर आधारित है उसमें जो लेख पं० ओझाजी ने उद्धृत किया है उसमें भी न और ण की आकृतियाँ भिन्न-भिन्न ही हैं। साथ ही उसमें 'ण' का प्रयोग Y For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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