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________________ विरल है। उस लेखांश में जहाँ पाँच बार 'न' का प्रयोग है वहाँ 'ण' का प्रयोग मात्र दो बार ही है अर्थात् ७० प्रतिशत न है और ३० प्रतिशत ण है। इसका तात्पर्य यह है कि वह मथुरा जिसे शौरसेनी का उत्पत्ति स्थल माना जाता है और जहाँ की भाषा पर 'णो न: सर्वत्र' का सिद्धान्त लागू किया जाता है वहाँ भी ई०पू० प्रथम शती में जब यह स्थिति है तो उस तथाकथित शौरसेनी की प्राचीनता का दावा कितना आधारहीन है, यह स्वत:सिद्ध हो जाता है। मथुरा के अभिलेखों में ईसा की प्रथम-दूसरी शती तक भी ‘णो न: सर्वत्र' और मध्यवर्ती 'त्' के 'द्' होने का दावा करने वाली उस तथाकथित शौरसेनी का कहीं अतापता ही नहीं है। ई०सन की प्रथम-दुसरी शती के लिपिपत्र सात के अवलोकन से ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत में विशेष रूप से नाशिक के शक उषवदात (ऋषभदत्त) के अभिलेख में न और ण की आकृति पूर्ववत् अर्थाता औरा के रूप में स्थिर रही है और इस लेखांश में ५४ प्रतिशत 'न' और ४६ प्रतिशत 'ण' के प्रयोग हैं तथा 'ण' के पाँच रूप और न के तीन रूप पाये जाते हैं- यथा 'ण' T , ,x, x, 'न' . , इस समग्र विवेचन से यह ज्ञात होता है ईस्वी पूर्व तीसरी शती से अर्थात् जब से अभिलिखित सामग्री प्राप्त होती है 'न' और 'ण' के लिए ब्राह्मी लिपि में सदैव ही भिन्न-भिन्न आकृतियाँ रही हैं, जिसका स्पष्ट निर्देश पं० गौरीशंकरजी ओझा ने अपने उपरोक्त लिपिपत्रों में किया है अत: उनके नाम पर डॉ० सुदीपजी का यह कथन नितान्त मिथ्या है कि "जब ब्राह्मी लिपि में 'न' और 'ण' के लिए एक ही आकृति का प्रयोग होता था, तो उसे 'न' पढ़ा ही क्यों जाए?'' जब न और ण के लिए प्रारम्भ से ही ब्राह्मी लिपि में अलग-अलग आकृतियाँ निश्चित हैं तो फिर 'न' को न और ण को ण ही पढ़ना होगा। पुन: जहाँ पूर्व एवं उत्तर भारत के अशोक के अभिलेखों में प्राय: 'ण' का अभाव है वहीं पश्चिमी भारत के उसके अभिलेखों में क्वचित् रूप से 'ण' के प्रयोग देखे जाते हैं। किन्तु इस विश्लेषण से एक नया तथ्य यह भी ज्ञात होता है कि मध्यप्रदेश एवं पश्चिम भारत में भी 'ण' के प्रयोग में कालक्रम में भी अभिवृद्धि हुई है जहाँ उत्तर पूर्व एवं मध्य भारत के ई०पू० तीसरी शती के अशोक के अभिलेखों में 'ण' का प्रायः अभाव है, वहीं पश्चिमी भारत के उसके अभिलेखों में 'ण' का प्रयोग १० प्रतिशत से कम है। उसके पश्चात् ई०पू० प्रथम शती के मथुरा और पभोसा के अभिलेखों में 'ण' का प्रयोग २५ प्रतिशत से ३० प्रतिशत मिलता है, किन्तु इसके लगभग दो सौ वर्ष पश्चात् पश्चिम-दक्षिण में नासिक के अभिलेख में यह बढ़कर ५० प्रतिशत हो जाता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि 'ण'कार प्रधान शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृतें 'न'कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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