________________
६७
के लिए एक ही आकृति (लिपि-अक्षर) प्रयुक्त होती थी। जैसे कि अंग्रेजी में 'N' का प्रयोग 'न्' एवं 'ण' दोनों के लिए होता है। तब उसे 'न' पढ़ा ही क्यों जाये? जब प्राकृत में णकार के प्रयोग का ही विधान है और उसे उक्त नियमानुसार 'ण' पढ़ा जा सकता है तो एक कृत्रिम विवाद की क्या सदाशयता हो सकती है? किन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने 'न' पाठ रख दिया और उसे देखकर हमने कह दिया कि शिलालेखों की प्राकृत में 'ण' का प्रयोग नहीं है। कई साहसी विद्वान् तो इसके बारे में यहाँ तक कह गये हैं कि प्राकृत में 'न' का प्रयोग प्राचीन है और 'ण' का प्रयोग परवर्ती है। यह वस्तुत: एक अविचारित, शीघ्रतावश किया गया वचन-प्रयोग मात्र है।
जो विद्वान् ईसापूर्व के शिलालेखों में नकार के प्रयोग का प्रमाण देते हैं, वे वस्तुतः शिलालेखों एवं प्राकृत के इतिवृत्त से वस्तुतः परिचित ही नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि ईसापूर्व के शिलालेखों में प्रयुक्त लिपि में 'न' वर्ण एवं 'ण' वर्ण के लिए एक ही आकृति का प्रयोग होता था - यह तथ्य महान् लिपि विशेषज्ञ एवं पुरातत्त्ववेत्ता रायबहादुर गौरीशंकर हीराचन्दजी ओझा ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारतीय लिपिमाला' में स्पष्टतः घोषित किया है।" १. इस सन्दर्भ में प्रथम आपत्ति तो यही है कि यदि पं० गौरीशंकरजी ओझा ने ऐसा
लिखा है तो भाई सुदीप जी ससन्दर्भ उसे उद्धृत क्यों नहीं करते, कि पं० ओझाजी ने यह अमुक ग्रन्थ के अमुक संस्करण में अमुक पृष्ठ पर यह लिखा है? या तो वे इसका स्पष्ट रूप से प्रमाण दें, अन्यथा विद्वानों के नाम से व्यर्थ भ्रम न फैलायें। उन्होंने पं० गौरीशंकरजी ओझा का नाम लेकर इस बात को कि ईस्वी पूर्व के शिलालेखों में 'न' और 'ण' के लिए एक ही आकृति का प्रयोग होता थाप्राकृतविद्या, अप्रैल-जून १९९७, पृ० ७ पर और प्राकृतविद्या, जनवरी-मार्च १९९८, पृ० ८ पर उद्धृत किया है। प्राकृतविद्या, अप्रैल-जून १९९७, पृ० ७ पर ओझाजी के नाम से वे लिखते हैं "प्राचीन भारतीय लिपियों, विशेषत: ब्राह्मी लिपि में 'न' और 'ण' वर्गों के लिए एक ही आकृति (लिपि-अक्षर) प्रयुक्त होती थी''। जबकि प्राकृतविद्या, जनवरी-मार्च १९९८, पृ० ८ पर वे लिखते हैं कि “ईसापूर्व के शिलालेखों में प्रयुक्त लिपि में 'न' वर्ण और 'ण' वर्ण के लिए एक ही आकृति का प्रयोग होता था। इन दोनों स्थानों पर कथ्य चाहे एक हो, किन्तु उनका भाषायी प्रारूप भिन्न-भिन्न है। किसी भी व्यक्ति का कोई भी उद्धरण चाहे कितनी ही बार उद्धृत किया जाये उसका भाषायी स्वरूप एक ही होता है। यहाँ इस विभिन्नता का तात्पर्य यही है कि वे पं० ओझाजी के कथन को अपने ढंग से तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर रहे हैं। वैसे सुदीपजी इस विधा में पारंगत हैं, वे बिना प्रामाणिक सन्दर्भ के किसी भी बड़े विद्वान् के नाम पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org