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अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी
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प्राकृत-विद्या, अंक जनवरी-मार्च १९९७ (पृ० ९७) में प्रो० भोलाशंकर व्यास के व्याख्यान के समाचारों के सन्दर्भ में सम्पादक डा० सुदीप जैन ने प्रो० व्यासजी को उद्धृत करते हुए लिखा है कि शौरसेनी प्राकृत के प्राचीन रूप सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख में मिलते हैं। किन्तु प्रो० व्यास जी का यह कथन भ्रामक है और इसका कोई भी भाषाशास्त्रीय ठोस आधार नहीं है।
अशोक के अभिलेखों की भाषा और व्याकरण के सन्दर्भ में अधिकृत विद्वान् एवं अध्येता डा० राजबली पाण्डेय ने अपने ग्रन्थ 'अशोक के अभिलेख' में गहन समीक्षा की है। उन्होंने अशोक के अभिलेखों की भाषा को चार विभागों में बाँटा है- १. पश्चिमोत्तरी (पैशाच-गान्धार), २. मध्यभारतीय, ३. पश्चिमी महाराष्ट्र, ४. दक्षिणावर्त (आन्ध्र-कर्नाटक)। अशोक की भाषा के सन्दर्भ में वह लिखते हैं- महाभारत के बाद
का भारतीय इतिहास मगध साम्राज्य का इतिहास है। इसलिए शताब्दियों से उत्तर भारत में एक सार्वदेशिक भाषा का विकास हो रहा था। यह भाषा वैदिक भाषा से उद्भूत लौकिक संस्कृत से मिलती-जुलती थी और उसके समानान्तर प्रचलित हो रही थी। अशोक ने अपने प्रशासन और धर्म प्रसार के लिए इसी भाषा को अपनाया, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इस भाषा का केन्द्र मगध था, जो मध्य-देश (स्थानेसर और कजंगल की पहाड़ियों के बीच का देश) के पूर्व भाग में स्थित था। इसलिये मागधी भाषा की इसमें प्रधानता थी, परन्तु सार्वजनिक भाषा होने कारण दूसरे प्रदेशों की ध्वनियों और कहीं-कहीं शब्दों और मुहावरों को भी यह आत्मसात करती जा रही थी। अशोक के अभिलेख मूलतः मगध साम्राज्य की केन्द्रीय भाषा में लिखे गये थे। फिर भी यह समझा गया कि दूरस्थ प्रदेशों की जनता के लिये यह प्रशासन और प्रचार की भाषा थोड़ी अपरिचित थी। इसलिए अशोक ने इस बात की व्यवस्था की थी कि अभिलेखों के मूल पाठों का विभिन्न प्रान्तों में आवश्यकतानुसार थोड़ा बहुत लिप्यन्तर और भाषान्तर कर दिया जाय। यही कारण है कि अभिलेखों के विभिन्न संस्करणों में पाठ-भेद पाया जाता है। पाठ भेद इस तथ्य का सूचक है कि भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न बोलियाँ थीं, जिनकी अपनी विशेषताएं थीं। अशोक के अभिलेखों में विभिन्न बोलियों के शब्दरूप को देखने से
यह ज्ञात होता है कि मध्यभारतीय भाषा ही इस समय की सार्वदेशिक भाषा थी, मूलत: Jain Education International For Private & Personal Use Only
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