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________________ ५६ को स्पष्ट रूप से उजागर कर रहे हैं, जबकि शौरसेनी का कोई भी ग्रन्थ या ग्रन्थांश ई० सन् की प्रथम-दूसरी शती के पूर्व का नहीं है। यदि साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर मागधी प्राकृत शौरसेनी की अपेक्षा कम से कम ३०० वर्ष प्राचीन है, तो फिर यह मानना होगा कि वह मागधी ही मूल प्राकृत भाषा है। पुनः प्रो० व्यासजी का यह कथन कि “पूर्वीय उच्चारण-भेद के अतिरिक्त मागधी और शौरसेनी में कोई अन्तर नहीं है। यह कथन मूलत:- वह भी शौरसेनी ही है", युक्तिसंगत नहीं है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि उच्चारण-भेद और प्रत्ययों के भेद ही विभिन्न प्राकृतों के अन्तर का आधार है। यदि भेद नहीं होते तो फिर विभिन्न प्राकृतों में कोई अन्तर किया ही नहीं किया जा सकता था और सभी प्राकृतें एक ही होती। वस्तुतः प्राकृत के मागधी, पालि, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि जो विविध भेद हैं वे अपने-अपने क्षेत्रीय उच्चारण-भेद और प्रत्यय-भेद के आधार पर ही स्थित हैं। अत: यह तो कहा जा सकता है कि मागधी, पालि, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि सभी मूलत: प्राकृते हैं; किन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि मागधी आदि भी शौरसेनी हैं। इनकी अपनी-अपनी लाक्षणिक भिन्नताएँ हैं; अत: यह नहीं कहा जा सकता कि मागधी भी शौरसेनी है या शौरसेनी का क्षेत्रीय संस्करण है। जिस प्रकार मागधी, पालि, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि प्राकृत के विभिन्न भेद हैं उसी प्रकार शौरसेनी भी प्राकृत का ही एक भेद है। पुन: यह भी स्मरण रखना चाहिए कि दिगम्बर जैन आगमों की शौरसेनी परिशुद्ध शौरसेनी न होकर अर्धमागधी और महाराष्ट्री से प्रभावित शौरसेनी है और इसीलिए पाश्चात्य विद्वानों ने उसे जैन शौरसेनी नाम दिया है। ___मैं "प्राकृतविद्या" के सम्पादक डॉ० सुदीपजी जैन से निवेदन करना चाहँगा कि वे प्रो. टाँटियाजी और प्रो० भोलाशंकर व्यासजी के नाम पर शौरसेनी की सर्वोपरिता की थोथी मान्यता स्थापित करने हेतु प्राकृत-प्रेमियों के बीच खाईं न खोदें। वस्तुत: यदि प्राकृत-प्रेमी पालि, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री की सर्वोपरिता के नाम पर आपस में लड़ने लगेंगे तो इससे प्राकृतविद्या की ही दुर्गति होगी। आज आवश्यकता है मिल-जुल कर समवेतरूप से प्राकृतविद्या के विकास की, न कि प्राकृत के इन क्षेत्रीय भेदों के नाम पर लड़कर अपनी शक्ति को समाप्त करने की। आशा है प्राकृतविद्या के सम्पादक को इस सत्यता का बोध होगा और वे प्राकृत-प्रेमियों को आपस में न लड़ाकर प्राकृतों के विकास का कार्य करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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