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इसी में अशोक के अभिलेख प्रस्तुत हुए थे। इसे मागध अथवा मागधी भाषा भी कह सकते हैं। परन्तु यह नाटकों एवं व्याकरण की मागधी से भिन्न है। जहाँ मागधी प्राकृत में केवल तालव्य 'श' का प्रयोग होता है वहाँ अशोक के अभिलेखों में केवल दन्तव्य 'स' का प्रयोग होता है (अशोक के अभिलेख - डॉ० राजबली पाण्डेय पृ० २२-२३) |
इससे दो तथ्य फलित होते हैं, प्रथम तो यह कि अशोक के अभिलेखों की भाषा नाटकों और व्याकरण की मागधी प्राकृत से भिन्न है और उसमें अन्य बोलियों के शब्द रूप निहित हैं। इसलिए हम इसे अर्धमागधी भी कह सकते हैं। यद्यपि श्वेताम्बर आगमों में उपलब्ध अर्धमागधी की अपेक्षा यह किञ्चित भिन्न है। फिर भी इतना निश्चित् है कि यह दिगम्बर आगमों की अथवा नाटकों की शौरसेनी प्राकृत कदापि नहीं है। दिगम्बर आगमों की शौरसेनी के दो प्रमुख लक्षण माने जा सकते हैं- मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द' का प्रयोग और दन्त्य 'न' के स्थन, पर मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग । अशोक के अभिलेखों में मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द' का प्रयोग कहीं भी नहीं देखा जाता है। शौरसेनी प्राकृत में संस्कृत 'भवति' का 'भवदि' या 'होदि' रूप मिलता है जबकि अशोक के अभिलेखों में एक स्थान पर भी 'होदि' रूप नहीं पाया जाता। सर्वत्र होति रूप पाया जाता है, जो अर्धमागधी का लक्षण है। इसी प्रकार 'पितृ' शब्द का 'पिति' या 'पितु ' रूप मिलता है जो कि अर्धमागधी का लक्षण है, शौरसेनी की दृष्टि से तो उसका 'पिदु' रूप होना था। इसी प्रकार 'आत्मा' शब्द का शौरसेनी प्राकृत में 'आदा' रूप बनता है, जबकि अशोक के अभिलेखों में कहीं भी 'आदा' रूप नहीं मिला है। सर्वत्र अत्ने, अत्ना यही रूप मिलते हैं। इसी प्रकार 'हित' का शौरसेनी रूप 'हिद' न मिलकर सर्वत्र ही हित शब्द का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार जहाँ शौरसेनी दन्त्य 'न' के प्रयोग के स्थान पर मूर्धनय 'ण' का प्रयोग पाया जाता है वहाँ अशोक के मध्यभारतीय समस्त अभिलेखों में मूर्धन्य ण का पूर्णतः अभाव है और सर्वत्र दन्त्य 'न' का प्रयोग हुआ है, पश्चिमी अभिलेखों में भी मूर्थन्य 'ण' का यदा-कदा ही प्रयोग हुआ है, किन्तु सर्वत्र नहीं । पुन: यह मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग तो महाराष्ट्री प्राकृत में भी पाया जाता है। अशोक के अभिलेखों की भाषा के भाषाशास्त्रीय दृष्टि से जो भी अध्ययन हुए हैं उनमें जहाँ तक मेरी जानकारी है, किसी एक भी विद्वान् ने उनकी भाषा को शौरसेनी प्राकृत नहीं कहा है। यदि उसमें एक दो शौरसेनी शब्द रूप जो अन्य प्राकृतों यथा अर्धमागधी या महाराष्ट्री में भी 'कामन' हैं, मिल जाते हैं तो उसकी भाषा को शौरसेनी तो कदापि नहीं कहा जा सकता है। इसीलिए शायद प्रो० भोलाशंकर जी व्यास को भी दबी जुबान से यह कहना पड़ा कि शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख में मिलते हैं। सम्भवत: इसमें इतना संशोधन अपेक्षित है कि शौरसेनी प्राकृत के कुछ प्राचीन शब्दरूप गिरनार के शिलालेख में मिलते हैं । किन्तु यह बात ध्यान
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