SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ के अनेकान्तवाद का परिचय देना नहीं है, केवल यह दिखाना है कि जैनों की समग्रतावादी दृष्टि ने किस प्रकार नित्यवाद - अनित्यवाद, द्वैतवाद - अद्वैतवाद, सामान्यवाद - विशेषवाद आदि परस्पर विरोधी दार्शनिक मान्यताओं को समन्वित कर समग्र सत्य की उद्भावना की। यह समग्रतावादी अध्ययन दृष्टि ही है जो प्रतिस्पद्ध दर्शनों के मध्य निहित सत्यता का दिग्दर्शन करा सकती है। अतः उसके विकास के लिए अन्य दार्शनिक धाराओं का मताग्रहों से परे उठकर तटस्थ अध्ययन आवश्यक है। जैनाचार्यों का स्पष्ट उद्घोष है कि सत्य के सूर्य का दर्शन केवल अनाग्रही, व्यापक एवं समग्रतावादी बहुआयामी दृष्टि से ही सम्भव है। मतान्धता या आग्रह का चश्मा उसे समझने में बाधक है । अन्त में साहित्य और कला के क्षेत्र में जैनों के अवदान और उनके अध्ययन की आवश्यकता का संकेत करके अपनी बात को समाप्त करना चाहूंगा। प्राचीन भारतीय साहित्य के क्षेत्र में जैनों का अवदान लगभग ३०% से अधिक ही है। जैनाचार्यों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड़, मरु-गुर्जर, आधुनिक हिन्दी और गुजराती भाषाओं में विपुल साहित्य का सर्जन किया है । पुनः यह जो साहित्य है वह भी बहु आयामी है। धर्म; दर्शन, आचार, उपदेश, कथा, सृष्टि विज्ञान, खगोल, भूगोल, ज्योतिष, निमित्तशास्त्र, चिकित्सा, ललित कलाएँ, काव्य, नाटक, छन्दशास्त्र, व्याकरण शास्त्र आदि अनेक विधाओं पर जैन आचार्यों ने अपनी लेखनी चलाई है। अभी तक तो इनका सम्पूर्ण सूचीकरण भी नहीं हो पाया है। एक मोटे अनुमान से सम्पूर्ण जैन ग्रन्थों की संख्या लगभग तीस चालीस हजार से कम नहीं होगी। अभी तो षट्खण्डागम, कसायपाहुड जैसे सैकड़ों दुर्लभ ग्रन्थ भण्डारों में पड़े हुए अपने उद्धार की प्रतीक्षा में हैं । इन सबके सम्पादन, अनुवाद, व्याख्या और प्रकाशन में जैन विद्या के विद्वानों की अनेक पीढ़ियाँ खप जायेगीं। यही स्थिति जैन कला, पुरावशेषों और अभिलेखों की भी है। विश्व के पुरातन कला वैभव के क्षेत्र में भी जैनों का अवदान कम नहीं है । श्रवणबेलगोला, जिनकाञ्ची, धर्मस्थल, देवगढ़, मथुरा, खजुराहो, आबू, राणकपुर, तारङ्गा, ओसिया, जैसलमेर जैसे सैकड़ों जैन स्थल हैं जो अपने कलापूर्ण वैभव के लिए के विश्व में प्रख्यात हैं, किन्तु अभी तो चौसा, मथुरा, देवगढ़ के समान विपुल सामग्री भूगर्भ में दबी पड़ी है, संयोग से जो सामग्री हमें मिल जाती है उसे छोड़ दें तो अभी अनेक ऐसे जैन स्थल हैं, जिनका वैज्ञानिक ढंग से उत्खनन आवश्यक है। जो सामग्री उपलब्ध है उसके भी सम्यक् अध्ययन का कितना प्रयत्न हुआ है और कितना अभी शेष है, इसे सभी विद्वान् अच्छी तरह जानते हैं । मथुरा के कंकाली टीले एवं अन्यत्र से प्राप्त लगभग एक सहस्र पुरावशेष और मूर्तियाँ केवल लखनऊ संग्रहालय में हैं, जो जैन धर्म के सम्प्रदायों के विकास एवं जैन कला के विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व के हैं, किन्तु इस दृष्टि उनका स्वल्प अध्ययन ही हुआ है। इसी प्रकार मथुरा से प्राप्त दो सौ के लगभग जैन अभिलेख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy