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________________ ७३ परम्परा के व्यामोह और अन्य परम्पराओं के ज्ञान के अभाव में ऐसी भ्रान्तियॉ जन्म लेती हैं। उदाहरण के लिए शीलांक जैसा आचारांग का समर्थ टीकाकार त्रियाम (तज्नामा) का सही अर्थ नहीं कर पाया क्योंकि वह उपनिषदों के त्रियाम से परिचित नहीं था । वे अपनी परम्परा में ही त्रियाम का अर्थ खोजते रहे। इसी प्रकार राहुल सांस्कृत्यायन जैसे समर्थ विद्वान् भी 'सव्ववारि वारिते' शब्द का सम्यक् अर्थ लगाने में इसलिए असफल रहे हैं, क्योंकि उन्होंने सूत्रकृतांग की वीर स्तुति नहीं देखी थी जिसमें वारि शब्द पानी के अर्थ में प्रयुक्त न होकर पाप के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । न केवल सहवर्ती अन्य परम्पराओं का अपितु अपनी ही परम्परा के आवान्तर सम्प्रदायों के ज्ञान का अभाव भी ऐसी ही भ्रान्तियाँ उत्पन्न करता है । मूलाचार के समर्थ टीकाकार दिगम्बर विद्वान् वसुनन्दी दस कल्पों की चर्चा के प्रसंग में आये पज्जोसवणा शब्द का सम्यक् अर्थ इसलिये नहीं समझ सके क्योंकि वे उत्तर भारत में श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित पर्यूषणा कल्प से अपरिचित थे। समयसार में आये 'अपदेशसुत्तमज्झं' का अर्थ करने में उसके अनेक टीकाकार इसलिए असमर्थ रहे कि उन्हें आचाराङ्ग सूत्र में आत्मा को अव्यपदेश बताने वाला प्रसंग ज्ञात नहीं था । हमारे ही युग के प्रसिद्ध जैन विद्वान् कैलाशचन्द जी ने भगवती आराधना में आये हुए उवणारियो शब्द को इसलिए अस्पष्ट कहकर छोड़ दिया क्योंकि वे श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित स्थानाचार्य की अवधारणा से अपरिचित थे। ये तो मैने कुछ संकेत दिये हैं, ऐसी अनेक भ्रान्तियाँ एकपक्षीय अध्ययन प्रणाली के कारण जन्म लेती हैं। अतः यथासम्भव हमें अपने अध्ययन बहु आयामी या समग्र बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। इसी प्रकार जैनविद्या का जो दार्शनिक पक्ष है, उसका भी तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन अपेक्षित है। बिना अन्य दर्शनों की मान्यताओं का अध्ययन किये दर्शन के क्षेत्र में जैनों के अवदान को नहीं समझा जा सकता है। दर्शन के क्षेत्र में जैनों का सबसे महत्त्वपूर्ण अवदान यह है कि उन्होंने न केवल परस्पर एक दूसरे के विरोध में खड़ी हुई दार्शनिक अवधारणा की कमियों की समीक्षा की अपितु उनको एक दूसरे से समन्वित कर दर्शन के क्षेत्र में एक समग्रतावादी अध्ययन विधा को विकसित किया। उन्होंने यह बताया कि परस्पर एक दूसरे के विरोध में खड़ी हुई दार्शनिक मान्यताओं को समन्वित करके समग्र सत्य का दर्शन किया जा सकता है। दर्शन के क्षेत्र में जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं ने ऐकान्तिक मान्यता की समीक्षा की और उनसे मुक्त होने की सलाह दी किन्तु जैन परम्परा ने उससे एक कदम आगे बढ़कर यह कहा कि सभी दर्शन आंशिक या सापेक्षिक सत्य को प्रस्तुत करते हैं, अत: उनमें यह सत्य है और यह असत्य है ऐसा भेद नहीं किया जाना चाहिए। असत्य का जन्म तो आग्रह या मतान्धता की गोद में होता है । यदि हमें, सम्पूर्ण सत्य का दर्शन करना है तो यह समग्र दृष्टि से ही सम्भव है। यह सिद्धसेन और हरिभद्र जैसे दार्शनिकों की दृष्टि थी जिसने प्रतिपक्ष में निहित सत्य को देखने का प्रयत्न किया और दर्शनों के मध्य जो विरोध था, उसका समाहार किया। यहां मेरा उद्देश्य विद्वानों को जैन दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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