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महावीर की परम्परा से गृहीत है, जब कि यम शब्द पार्श्व की परम्परा का है। इससे इनके विकास का ऐतिहासिक क्रम निश्चित हो जाता है कि किस प्रकार त्रियाम से चातर्याम
और चातुर्याम से पञ्चयाम और पञ्चमहाव्रत विकसित हुए। यह एक प्रारूप है। सभी अवधारणाओं के अध्ययन में इस प्रकार के ऐतिहासिक विकासक्रम को समझना आवश्यक है। इस प्रकार के अध्ययन से यह भी निश्चित हो सकेगा कि कौन सी अवधारणा किस परम्परा से किसने ग्रहीत की है।
जैन विद्या के क्षेत्र में अनेक अवधारणाओं का विद्वानों द्वारा गम्भीर और तलस्पर्शी अध्ययन हुआ है। किन्तु उनके ऐतिहासिक क्रम को न समझ पाने के कारण उन्होंने सभी अवधारणाओं को सीधा महावीर या ऋषभ से जोड़ दिया है। मात्र इतना ही नहीं, प्राचीन स्तर के ग्रन्थों को व्याख्यायित करने हेतु भी उन्हीं परवर्ती अवधारणाओं को आधार बना लिया। उदाहरण के लिए तत्त्वार्थसूत्र मूल में कहीं भी गुणस्थान का निर्देश नहीं है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के सभी श्वेताम्बर या दिगम्बर टीकाकार उसके सूत्रों की व्याख्याओं में जहाँ भी सम्भव होता है इस गुणस्थान सिद्धान्त का विपुल रूप में प्रयोग करते हैं। किन्तु अकादमीय दृष्टि से यह पद्धति उचित नहीं है क्योंकि यह शब्द की मूलात्मा को समझने में भ्रान्ति उत्पन्न करती है।
कौन सी अवधारणा कब विकसित हुई इसको समझने का सर्वसुलभ तरीका यह है कि उस शब्द का उस अर्थ में सर्वप्रथम प्रयोग किस ग्रन्थ में है और उस ग्रन्थ का रचना काल कब का है? गुणस्थान शब्द का प्रयोग मूल आगमों और तत्त्वार्थसूत्र (तीसरी-चौथी शती) में कहीं नहीं है, जबकि छठी शती या उसके बाद निर्मित आगमिक व्याख्याओं और तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में है इससे यह फलित होता कि गुणस्थान सिद्धान्त चौथी शताब्दी के पश्चात् और छठी शती के पूर्व अर्थात् पांचवी शती में अस्तित्व में आया है। पुनः इस तुलनात्मक और ऐतिहासिक विकासक्रम में किसी अवधारणा के प्रकारों की संख्याओं के निर्धारण के आधार पर भी अनेक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। जैसे तत्त्वार्थसूत्र में आध्यात्मिक विकास की चार, सात और दस अवस्थाओं का चित्रण है। हम देखते हैं कि उपनिषदों और हीनयान सम्प्रदाय में भी इसकी चार ही अवस्थाओं का चित्रण है। योगवशिष्ट में ज्ञान की सात अवस्था बतायी गयी है, जबकि महायान सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकासक्रम की दस भूमियाँ बताई गई हैं। अत: यह विचार सम्भव है कि संख्या निर्धारण अकस्मात् नही होता है, वह भी अन्य परम्पराओं से प्रभावित हो सकता है। अत: अध्ययन करते समय इस संख्यात्मक पक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए। उदाहरण के लिए षडावश्यक, गृहस्थ के षटकर्म तथा तन्त्र के मारण आदि षट्कर्मों की संख्या के निर्धारण में एक दूसरे का प्रभाव परिलक्षित होता है। तुलनात्मक समग्र अध्ययन के स्थान पर एकपक्षीय अध्ययन का सबसे बड़ा दोष यही है कि अनेक स्थितियों में वह हमारी व्याख्याओं को भ्रान्त बना देता है। अपनी
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