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षड्दर्शन समुच्चय की समीक्षा
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है कि उन्होंने टीका के मूल तर्कों और विषयों का अनुसरण किया है किन्तु वास्तव में तो यह टीका पर आधारित एक स्वतन्त्र व्याख्या ही है। दर्शन जैसे दुरूह विषय के तार्किक ग्रन्थों की ऐसी सरल और सुबोध व्याख्या हमें अन्यत्र कम ही देखने को मिलती है। यह उनकी लेखनी का ही कमाल है कि वे बात-बात में ही दर्शन की दुरूह समस्याओं को हल कर देते हैं। हरिभद्र के ही एक ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय की टीका का अनुवाद सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति स्व० पं० बदरीनाथ शुक्ल ने किया है किन्तु उनका यह अनुवाद इतना जटिल है कि अनुवाद की अपेक्षा मूल ग्रन्थ से विषय को समझ लेना अधिक आसान है। यही स्थिति प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहस्त्री आदि जैनदार्शनिक ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद की है। वस्तुतः किसी व्यक्ति का वैदुष्य इस बात में नहीं छलकता कि पाठक को विषय अस्पष्ट बना रहे, वैदुष्य तो इसी में है कि पाठक ग्रन्थ को सहज और सरल रूप में समझ सके। पं० महेन्द्रकुमार 'न्यायाचार्य' की यही एक ऐसी विशेषता उन्हें उन विद्वानों की उस कोटि में लाकर खड़ा कर देती है जो गम्भीर विषय को भी स्पष्टता के साथ समझने और समझाने में सक्षम हैं।
सामान्यतया संस्कृत के ग्रन्थों की व्याख्याओं या अनुवादों को समझने में एक कठिनाई यह होती है कि मूलग्रन्थ या टीकाओं में पूर्वपक्ष कहाँ समाप्त होता है और उत्तरपक्ष कहाँ से प्रारम्भ होता है, किन्तु पं० महेन्द्रकुमार जी ने अपने अनुवाद में ईश्वरवादी जैन अथवा शंका-समाधान ऐसे छोटे-छोटे शीर्षक देकर के बहुत ही स्पष्टता के साथ पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष को अलग-अलग रख दिया, ताकि पाठक दोनों को अलग-अलग ढंग से समझ सकें।
भाषा की दृष्टि से पण्डित जी के अनुवाद की भाषा अत्यन्त सरल है। उन्होंने दुरूह संस्कृतनिष्ठ वाक्यों की अपेक्षा जनसाधारण में प्रचलित शब्दावली का ही प्रयोग किया है। यही नहीं, यथास्थान उर्दू और अंग्रेजी शब्दों का भी निःसंकोच प्रयोग किया है। उनके अनुवाद में प्रयुक्त कुछ पदावलियों और शब्दों का प्रयोग देखें 'यह जगत् जाल बिछाया है', 'कर्मों के हुकुम को बजाने वाला मैनेजर', 'बैठे-ठाले, हाइड्रोजन में जब ऑक्सीजन अमुक मात्रा में मिलता है तो स्वभाव से ही जल बन जाता है; इसमें बीच के एजेण्ट ईश्वर की क्या आवश्यकता है', 'बिना जोते हुए अपने से ही उगने वाली जंगली घास', 'प्रत्यक्ष से कर्ता का अभाव निश्चित है', (देखें पृ० १०२ - १०३ ) आदि । वस्तुतः ऐसी शब्द - योजना सामान्य पाठक के लिये विषय को समझाने में अधिक कारगर सिद्ध होती है । जहाँ तक पं० महेन्द्रकुमार जी के वैदुष्य का प्रश्न है इस ग्रन्थ की
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