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षड्दर्शन समुच्चय की समीक्षा .
व्याख्या से वह अपने आप ही स्पष्ट हो जाता है क्योंकि जब तक व्यक्ति षड्दर्शनों के साथ-साथ उनके पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष का सम्यक् ज्ञाता न हो तब तक वह उनकी टीका नहीं लिख सकता। यद्यपि प्रस्तुत टीका में जैनदर्शन के पूर्वपक्ष में एवं पूर्वपक्ष को विस्तार दिया है किन्तु अन्य दर्शनों के भी पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष तो अपनी जगह उपस्थित हुए ही हैं। अत: षड्दर्शनसमुच्चय जैसे ग्रन्थ की टीका पर एक नवीन व्याख्या लिख देना केवल उसी व्यक्ति के लिये सम्भव है जो किसी एक दर्शन का अधिकारी विद्वान् न होकर समस्त दर्शनों का अधिकारी विद्वान् हो। पं० महेन्द्रकुमार जी की यह प्रतिभा है कि वे इस ग्रन्थ की सरल और सहज हिन्दी व्याख्या कर सके, दार्शनिक जगत् उनके इस अवदान को कभी भी नहीं भला पाएगा। वस्तुत: उनका यह अनुवाद, अनुवाद न होकर एक स्वतन्त्र व्याख्या ही है। उनकी वैज्ञानिक सम्पादन-पद्धति का यह प्रमाण है कि उन्होंने प्रत्येक विषय के सन्दर्भ में अनेक जैन एवं जैनेतर ग्रन्थों से प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। सन्दर्भ-ग्रन्थों की यह संख्या सम्भवत: सौ से भी अधिक होगी जिनके प्रमाण, टिप्पणी के रूप में तुलना अथवा पक्ष-समर्थन की दृष्टि से प्रस्तुत किये गए हैं। ये टिप्पण पं० महेन्द्रकुमार जी के व्यापक एवं बहुमुखी प्रतिभा के परिचायक हैं। यदि उन्हें इन सब ग्रन्थों का विस्तृत अवबोध नहीं होता तो यह सम्भव नहीं था कि वे इन सब ग्रन्थों से टिप्पण दे पाते। परिशिष्टों के रूप में षड्दर्शनसमुच्चय की मणिभद्र कृत लघवृत्ति, अज्ञातकर्तृक अवचूर्णि के साथ-साथ कारिका, शब्दानुक्रमिका, उद्धृत वाक्य, अनुक्रमणिका, संकेत-विवरण, आदि से यह स्पष्ट हो जाता है कि पं० .महेन्द्रकुमार जी केवल परम्परागत विद्वान् ही नहीं थे, अपितु वे वैज्ञानिक रीति से सम्पादन कला में भी निष्णात थे। वस्तुत: उनकी प्रतिभा बहुमुखी और बहुआयामी थी, जिसका आकलन उनकी कृतियों के सम्यक् अनुशीलन से ही पूर्ण हो सकता है। षड्दर्शनसमुच्चय की गुणरत्न की टीका पर उनकी यह हिन्दी व्याख्या वस्तुतः भारतीय दर्शन जगत् को उनका महत्त्वपूर्ण अवदान है जिसके लिये वे विद्वज्जगत् में सदैव स्मरण किये जाते रहेंगे।
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