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________________ १४४ षड्दर्शन समुच्चय की समीक्षा अनुवाद के क्षेत्र में पं० महेन्द्रकुमार जी ने मूल टीका की अपेक्षा भी अर्थ में विस्तार किया है किन्तु इस विस्तार के कारण उनकी शैली में जो स्पष्टता और सुबोधता आई है वह निश्चय ही ग्रन्थ को सरलतापूर्वक समझाने में सहायक होती है। उदाहरण के रूप में ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्व की सरल शब्दों में समीक्षा करते हए वे लिखते हैं - "अच्छा यह भी बताओ कि ईश्वर संसार को क्यों बनाता है? क्या वह अपनी रुचि से जगत् को गढ़ने बैठ जाता है? अथवा हम लोगों के पुण्य-पाप के अधीन होकर इस जगत् की सृष्टि करता है या दया के कारण यह जगत् बनाता है या उसने क्रीड़ा के लिये यह खेल-खिलौना बनाया है किंवा शिष्टों की भलाई और दुष्टों को दण्ड देने के लिए यह जगत्-जाल बिछाया है या उसका यह स्वभाव ही है कि वह बैठे-ठाले कुछ न कुछ किया ही करे।" यदि हम उनकी इस व्याख्या को मूल के साथ मिलान करके देखते हैं तो यह पाते हैं कि मूल-टीका मात्र दो पंक्तियों में है जबकि अनुवाद विस्तृत है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका यह अनुवाद शब्दानुसारी न होकर विषय को स्पष्ट करने की दृष्टि से ही हुआ है। पं० महेन्द्रकुमार 'न्यायाचार्य' के इस अनुवाद शैली की विशेषता यह है कि वे इसमें किसी दुरूह शब्दावली का प्रयोग न करके ऐसे शब्दों की योजना करते हैं जिससे सामान्य पाठक भी विषय को सरलतापूर्वक समझ सके। इस अनुवाद से ऐसा लगता है कि इसमें पंडितजी का उद्देश्य अपने वैदुष्य का प्रदर्शन करना नहीं है, अपितु सामान्य पाठक को विषय का बोध कराना है। यही कारण है कि उन्होंने मूल और टीका से हटकर भी विषय को स्पष्ट करने के लिये अपने ढंग से उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। पं० महेन्द्रकुमार जी के इस अनुवाद की दूसरी विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी व्याख्या में जनसामान्य के परिचित शब्दावली का ही उपयोग किया है। उदाहरण के रूप में जैन दृष्टि से ईश्वर के सृष्टिकर्ता होने की समीक्षा के प्रसंग में वे लिखते हैं कि यदि ईश्वर हम लोगों के पाप-पुण्य के आधार पर ही जगत् की सृष्टि करता है तो उसकी स्वन्त्रता कहाँ रही, वह काहे का ईश्वर। वह तो हमारे कर्मों के हकूम को बजाने वाला एक मैनेजर सरीखा ही हआ। यदि ईश्वर कृपा करके इस जगत् को रचता है तो संसार में कोई दुःखी प्राणी नहीं रहना चाहिये, सभी को खुशहाल और सुखी ही उत्पन्न होना चाहिये। इस शब्दावली से हम स्पष्ट अनुमान कर सकते हैं कि पंडित जी ने दर्शन जैसे दुरूह विषय को कितना सरस और सुबोध बना दिया है। यह कार्य सामान्य पंडित का नहीं अपितु एक अधिकारी विद्वान् का ही हो सकता है। ___ वस्तुत: यदि इसे अनुवाद कहना हो तो मात्र इस प्रकार कहा जा सकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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