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________________ प्रो. सागरमल जैन 13 मनुष्य दूसरों के अधिकार की वस्तुओं का अपहरण करता है। इस प्रकार आसक्ति बाह्यतः तीन रूपों में प्रकट होती है --- १. अपहरण (शोषण), २. भोग और ३. संग्रह । आसक्ति के तीन रूपों का निग्रह करने के लिए जैन आचारदर्शन में अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रतों का विधान है। संग्रह-वृत्ति का अपरिग्रह से, भोगवृत्ति का ब्रह्मचर्य से और अपहरणवृत्ति का अस्तेय महाव्रत से निग्रह होता है। जैन आचार्यों ने जिस अपरिग्रह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, उसके मूल में यही अनासक्ति की जीवन दृष्टि कार्य कर रही है। यद्यपि आसक्ति एक मानसिक तथ्य है, मन की ही एक वृत्ति है, तथापि उसका प्रकटन बाह्य है। वह सामाजिक जीवन को दूषित करती है। अतः आसक्ति के प्रहाण के लिए व्यावहारिक रूप में परिग्रह का त्याग भी आवश्यक है। परिग्रह या संग्रहवृत्ति सामाजिक हिंसा है। जैन आचार्यों की दृष्टि में समग्र परिग्रह हिंसा से प्रत्युत्पन्न है। क्योंकि बिना हिंसा (शोषण) के संग्रह असम्भव है। व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन करता है और इस रूप में संग्रह या परिग्रह हिंसा का ही एक रूप है। अनासक्ति को जीवन में उतारने के लिए जैन आचार्यों ने यह आवश्यक माना कि मनुष्य बाह्य-परिग्रह का भी त्याग या परिसीमन करे। परिग्रह-त्याग अनासक्त दृष्टि का बाह्य जीवन में दिया गया प्रमाण है। एक ओर विपुल संग्रह और दूसरी ओर अनासक्ति, इन दोनों में कोई मेल नहीं है। यदि मन में अनासक्ति की भावना का उदय है तो उसे बाह्य व्यवहार में अनिवार्य रूप से प्रकट होना चाहिए। जैनदर्शन के अनुसार समविभाग और समवितरण साधना का आवश्यक अंग है। इसके बिना आध्यात्मिक उपलब्धि भी संभव नहीं। अतः जैन आचार्यों ने साधना की दृष्टि से अपरिग्रह को अनिवार्य एक तत्त्व माना है। इस प्रकार वृत्ति में अनासक्ति, विचार में अनेकान्त और व्यवहार में अहिंसा जैन साधना का सार हैं। जैन साधक सदैव ही यह प्रार्थना करता है -- सत्वेषु मैत्री, गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेसु जीवेषु कृपापरत्वं । माध्यस्थभावं वीपरीतवृतौ सदाममात्मा विद्धातु देव।। हे प्रभु ! मेरे हृदय में प्राणि मात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणीजनों के प्रति समादरभाव, दुःखियों के प्रति करुणाभाव और विरोधियों के प्रतिमध्यस्थ भाव बना रहे। - प्रो. सागरमल जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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