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________________ भगवान् महावीर का जीवन और दर्शन - डॉ. सागरमल जैन भगवान् महावीर का जन्म बौद्धिक जागरण के युग में हुआ था । उस युग में भारत में हमारे औपनिषदिक ऋषि नित-नूतन चिन्तन प्रस्तुत कर रहे थे । महावीर और बुद्ध भी उसी वैचारिक क्रांति के क्रम में आते हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि महावीर की विशेषता क्या थी ? बुद्ध की विशेषता क्या थी ? यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि कोई भी महापुरुष अपने युग की परिस्थितियों की पैदाइश होता है। महावीर और बुद्ध जब इस भूमण्डल पर आये उनके सामने दो प्रकार की समस्याएँ थीं। एक ओर वैचारिक संघर्ष था दूसरी ओर मनुष्य अपनी मानवीय गरिमा और मूल्यवत्ता को भूलता जा रहा था । महावीर ने जो मुख्य कार्य किया वह यह कि उन्होंने मनुष्य को उसकी विस्मृत महत्ता या गरिमा का बोध कराया। अगर महावीर के जीवन दर्शन को दो शब्दों में कहना हो तो हम कहेंगे विचार में उदारता और आचार में कठोरता । वैचारिक क्षेत्र में महावीर की जीवन दृष्टि जितनी उदार, सहिष्णु और समन्वयवादी रही, आचार के क्षेत्र में महावीर का दर्शन उतना ही कठोर रहा। महावीर के जीवन के सन्दर्भ में हमारे सामने एक बात बहुत ही स्पष्ट है, वह यह कि वह व्यक्ति राज परिवार में, सम्पन्न परिवार में जन्म लेता है लेकिन फिर भी वह उस सारे वैभव को ठुकरा देता है और श्रमण जीवन अंगीकार कर लेता है । आखिर ऐसा क्यों करता है ? उसके पीछे क्या उद्देश्य है ? क्या महावीर ने यह सोचकर संन्यास ले लिया कि भ्रमण या संन्यासी होकर ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती ? ऐसी बात नहीं थी, क्योंकि महावीर ने स्वयं ही आचारांग में कहा है "गामे वा रणे वा" धर्म साधना गांव में भी हो सकती है और अरण्य में भी हो सकती है। फिर महावीर ने संन्यास का मार्ग क्यों चुना ? उत्तर स्पष्ट है "समिच्च लोए खेयन्ने पवेइए" समस्त लोक की पीड़ा को जानकर और जगत् को दुःख और पीड़ा से मुक्त करने के लिए महावीर ने संन्यास धारण किया। वे अपने वैयक्तिक जीवन से एक ऐसा आदर्श प्रतिष्ठित करना चाहते थे, जिसे सम्मुख रखकर के व्यक्ति मानवता के कल्याण की दिशा में आगे बढ़ सकता है । सम्भवतः प्रश्न यह हो सकता है कि लोकमंगल और लोककल्याण के लिए श्रमणत्व क्यों आवश्यक है ? मित्रों ! हम आज के युग में भी देखते हैं कि जब तक व्यक्ति कहीं भी अपने निजी स्वार्थों से और वैयक्तिक तथा पारिवारिक कल्याण से जुड़ा होता है तब तक वह सम्यक् रूप से लोककल्याण का सम्पादन नहीं कर सकता। चाहे आप उसको लोककल्याण अधिकारी क्यों नहीं बना दें क्या वह लोककल्याण कर सकेगा ? व्यक्ति जब तक अपने स्वार्थों एवं हितों से ऊपर नहीं उठ जाता है, तब तक वह लोकमंगल का सृजन नहीं कर सकता । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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