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अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है। वस्तुतः अहिंसा जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभाव एवं अद्वैतभाव है । समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतभाव से आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है। वस्तुतः प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य को जन्म देता है । जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है । उत्तराध्ययनसूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की स्थापना करते हुए कहा गया है कि भय और वैर से मुक्त साधक, जीवन की इच्छा रखने वाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जान कर उनकी कभी भी हिंसा न करे । इस प्रकार जैनधर्म में अहिंसा का आधार आत्मवत् दृष्टि ही है। आज विश्व शान्ति का एक मात्र विकल्प अहिंसा की समवेत साधना है। महावीर ने कहा था- 'शस्त्र एक से बढ़ कर एक हो सकते हैं, किन्तु अहिंसा (अशस्त्र) से बढ़कर कुछ नहीं है ।'
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अनाग्रह
अनाग्रह या अनेकान्त का सिद्धान्त वैचारिक अहिंसा है। अनाग्रह अपने विचारों की तरह दूसरे के विचारों का सम्मान करना सिखाता है। वह उस भ्रान्ति का निराकरण करता है कि सत्य मेरे पास है, दूसरे के पास नहीं हो सकता। वह हमें यह बताता है कि सत्य हमारे पास भी हो सकता है और दूसरे के पास भी । सत्यता का बोध हमें ही हो सकता है, केवल दूसरों को सत्य का बोध नहीं हो सकता यह कहने का हमें अधिकार नहीं है। सत्य का सूर्य न केवल हमारे घर को प्रकाशित करता है वरन् दूसरों के घरों को भी प्रकाशित करता है । वस्तुतः वह सर्वत्र प्रकाशित है। जो भी उन्मुक्त दृष्टि से उसे देख पाता है, वह उसे पा जाता है । सत्य केवल सत्य है, वह न मेरा है और न दूसरे का है। जिस प्रकार अहिंसा का सिद्धान्त कहता है कि जीवन जहाँ कहीं हो, उसका सम्मान करना चाहिए, उसी प्रकार अनाग्रह का सिद्धान्त कहता है कि सत्य जहाँ भी हो, उसका सम्मान करना चाहिए। वस्तुतः पक्षाग्रह की धारणा से विवाद का जन्म होता है। व्यक्ति जब स्व-मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्द करता है, तो परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में संघर्ष का प्रादुर्भाव हो जाता है। वैचारिक आग्रह न केवल वैयक्तिक विकास को कुण्ठित करता है, वरन् सामाजिक जीवन में विग्रह, विषाद और वैमनस्य के बीज बो देता है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य दिखाते हैं और लोक को सत्य से भटकाते हैं, वे एकान्तवादी स्वयं संसारचक्र में भटकते रहते हैं। वस्तुतः जहाँ भी आग्रहबुद्धि होगी, विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन सम्भव नहीं होगा और जो विपक्ष में निहित सत्य नहीं देखेगा वह सम्पूर्ण सत्य का द्रष्टा नहीं होगा। जैनधर्म के अनुसार सत्य का प्रकटन आग्रह में नहीं, अनाग्रह में होता है। सत्य का साधक वीतराग और अनाग्रही होता है। जैनधर्म अपने अनेकान्त के सिद्धान्त के द्वारा एक अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि प्रस्तुत करता है, ताकि वैचारिक एवं धार्मिक असहिष्णुता को समाप्त किया जा सके।
जैनदर्शन : एक अनुचिन्तन
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१.
अनासक्ति व्यक्ति के अन्दर निहित आसक्ति दो रूपों में प्रकट होती है संग्रह - भावना और २. भोग- भावना । संग्रह - भावना और भोग-भावना से प्रेरित होकर ही
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