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पञ्चाध्यायी ।
[ प्रथम
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अभावरूप ही है । इसलिये स्याद्वादको वे ही तर्कशास्त्री संशयात्मक कह सकते हैं जिन्होंने न तो संशयका ही स्वरूप समझा है और न स्याद्वादका ही स्वरूप समझा है । इसी प्रकार जो *लोग “ नैकस्मिन्नसंभवात् " अर्थात् एक पदार्थ में दो विरोधी धर्म नहीं रह सकते हैं ऐसा कहकर स्याद्वाद स्वरूप जैन दर्शनको असत्यात्मक ठहराते हैं वे भी पढ़ार्थके यथार्थ बोवसे कोसों दूर हैं अस्तु । क्या हमें वे यह समझा देंगे कि पुस्तकको पुस्तक ही क्यों कहते हैं ? पुस्तकको दावात क्यों नहीं कहते ? कलम क्यों नहीं कहते ? चौकी क्यों नहीं कहते ? दीपक क्यों नहीं कहते ? यदि वे इस प्रश्न के उत्तर में यह कहें कि पुस्तक में पुस्तक ही धर्म रहता है इसलिये वह पुस्तक ही कही जाती है । उसमें दावातत्व धर्म नहीं है, कलमत्व धर्म नहीं है, चौकीत्व 'धर्म नहीं है दीपक धर्म नहीं है इसलिये वह पुस्तक दावात, कलम, चौकी, दीपक नहीं कही जाती है, अर्थात् पुस्तकमें पुस्तकत्व धर्मके सिवा इतर जितने भी उससे भिन्न पदार्थ हैं, सर्वोका पुस्तकमें अभाव है । इसीप्रकार हरएक पदार्थ में अपने स्वरूपको छोड़कर बाकी सब पदार्थों के स्वरूपका अभाव रहता है । यदि अन्य पदार्थों के स्वरूपका भी सद्भाव हो तो एक पदार्थमें सभी पदार्थों की सकरताका दोष आता है और यदि पदार्थ में स्व-स्वरूपका भी अभाव हो तो पदार्थ अभावका ही प्रसंग आता है। इसलिये स्व-स्वरूपकी अपेक्षा भाव और पर-स्वरूपकी अपेक्षा अभाव ऐसे हरएक पदार्थमें दो धर्म रहते हैं । बस इसी उत्तरसे दो favataar एक पदार्थ में अभाव बतलानेवाले तर्कशास्त्री स्वयं समझ गये होंगे कि एक पदार्थ में भाव-धर्म और अभाव धर्म दोनों ही रहते हैं । इनके स्वीकार किये विना तो पदार्थका स्वरूप ही नहीं बनता । इसलिये अनेकान्त पूर्वक सभी कथन अविरुद्ध और उसके विना विरुद्ध है । यहां पर यह शंका करना भी व्यर्थ है कि भाव और अभाव दोनों विरोधी हैं फिर एक पदार्थमें दोनों कैसे रह सक्ते हैं ? इसका उत्तर ऊपर कहा भी जाचुका है। दूसरे - जिसको faiax बतलाया जाता है वह वास्तव में विरोध ही नहीं है । पदार्थका स्वरूप ही ऐसा है । स्वभावोsaaगोचरः अर्थात् किसीके स्वभावमें तर्क काम नहीं करता है। अग्निका स्वभाव उष्ण है। वहां अग्नि उष्ण क्यों है ? " यह प्रश्न व्यर्थ है, प्रत्यक्ष वाधित है ।
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* शङ्कराचार्य मतके अनुयायी ।
x विरोध तीन प्रकार होता है । १ सहानवस्थान २ प्रतिवन्ध्य प्रतिबन्धक ३ बध्यघातक । इन तीनों में से भावाभावमें एक भी नहीं है । विशेष बोधके लिये इस कारिकाको देखोकथञ्चित् सदेवेष्टुं कथञ्चिदसदेव तत् ।
तयोभयमत्राच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥ १ ॥
तत्र सत्वं वस्तुधर्मः तदनुपगमे वस्तुनो वस्तुत्यायोगात् खरविषाणादिवत् । तथा कथञ्चिदसत्वं वस्तुधर्मः । स्वरूपादिभिरिव पररूपादिभिरपि वस्तुनोऽसत्वानिष्टौ प्रतिनियतस्वरूपाभावाद्वस्तुप्रति नियमविरोधात् । एतेन क्रमार्पितोभयत्वादीनां वस्तुधर्मत्वं प्रतिपादितम् ।
अgerस्री
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