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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
शङ्काकार-
ननु चोत्पादादित्रय मंशानामथ किमंशिनो वा स्यात् । अपि किं सदंशमात्रं किमथांशमसदस्ति पृथगिति चेत् ॥ २२६ ॥ अर्थ -- क्या उत्पादादिक तीनों ही अंशोंके होते हैं : अथवा अंशीके होते हैं ? अथवा सत्के अंश मात्र हैं ? अथवा असत्-अंश रूप भिन्न २ हैं ?
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उत्तर
२२७ ॥
तन्न यतोऽनेकान्तो बलवानिह खलु न सर्वथैकान्तः । सर्व स्यादविरुद्धं तत्पूर्वं तहिना विरुद्धं स्यात् ॥ अर्थ - - उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है । क्योंकि यहां पर ( जैन दर्शनमें ) नियमसे अनेकान्त ही बलवान् है । सर्वथा एकान्त नहीं । यदि ऊपर किये हुए प्रश्न अनेकान्त दृष्टिसे किये गये हैं तो सभी कथन अविरुद्ध है । किसी दृष्टिसे कुछभी कहा जाय, उसमें विरोध नहीं आसक्ता । और अनेकान्तको छोड़कर केवल एकान्त रूपसे ही उपर्युक्त प्रश्न किये गये हैं तो अवश्य ही एक दूसरे के विरोधी हैं । इसलिये अनेकान्त पूर्वक सभी कथन अविरुद्ध है । और वही कथन उसके विना विरुद्ध है ।
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भावार्थ - - जैन दर्शन प्रमाणनयात्मक है । जिस किसी पदार्थका किसी रूप विवेचन क्यों न किया जाय, नगदृष्टिसे सभी संगत हो जाता है। वही कथन अपेक्षादृष्टिको छोड़कर किया जाय तो असंगत हो जाता है। यहां पर कोई यह शंका न कर बैठे कि कभी किसी बातको कभी किसी रूप कहनेसे और कभी किसी रूप कहनेसे जैन दर्शन किसी बातका निर्णायक नहीं है किन्तु संशयात्मक है । ऐसा कहनेवालोंको थोड़ा सूक्ष्मदृष्टिसे विचार करना चाहिये । जैन दर्शन संशयात्मक नहीं किन्तु वस्तु यथार्थ स्वरूपका कहनेवाला है । वस्तु एक धर्मात्मक नहीं है, किन्तु अनेक धर्मात्मक है । इसलिये वह अनेक रूपसे ही कही जाती है । एक रूपसे कहना उसके स्वरूपको बिगाड़ना है । संशय उभयकोटि समान ज्ञान होनेसे होता है । यहां पर उभय कोटिमें समान ज्ञान नहीं है । यद्यपि एक ही पदार्थको अनेक धर्मों द्वारा कहा जाता है परन्तु जिस दृष्टिसे जो धर्म कहा जाता है उस दृष्टिसे वह सदा वैसा ही है । उस दृष्टि वह सदा एक धर्मात्मक ही है । दृष्टान्तके लिये पुस्तकको ही ले लीजिये । पुस्तक भाव रूप भी है और अभावरूप भी है । अपने स्वरूपकी अपेक्षासे तो वह भाव रूप है और पर-पदाaat अपेक्षासे वह अभावरूप है । ऐसा नहीं है कि कभी अपने स्वरूपकी अपेक्षा भी वह अभावरूप कही जाय । अथवा पर- पदार्थोकी अपेक्षासे भी कभी भावरूप कही जाय । इसलिये नय समुदाय प्रमाणसे तो वस्तु भावरूप भी है, अभावरूप भी है । परन्तु नय दृष्टिसे जिन रूपसे भावरूप है उस रूपसे सदा भावरूप ही है और जिस दृष्टिसे अभावरूप है उससे सदा
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