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पञ्चाध्यायी।
[ प्रथम
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__ अर्थ-अथवा यदि वह सत् केवल व्ययका लक्ष्य बनाया जाता है, अर्थात् वह व्यय परिणामको धारण करता है तो वह सत् केवल व्यय मात्र ही है।
___ अथवा---- धाव्येण परिणतं सद्यदि वा प्रौव्येण लक्ष्यमाणं स्यात् ।
उत्पादव्ययवदिदं स्यादिति तद ध्रौव्यमानं सत् ॥ २२२ ॥
अर्थ-यदि सत् ध्रौव्य परिणामको धारण करता है अथवा वह ध्रौव्यका लक्ष्य बनाया जाता है, तब उत्पाद व्यय के समान वह सत् ध्रौव्य मात्र है।
भावार्थ--उपर्युक्त तीनों श्लोकोंमें इस वातका निषेध किया गया है कि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य सत्से भिन्न हैं अथवा सतके एक २ भागसे होनेवाले अंश हैं । साथ ही यह बतलाया गया है कि तीनों ही सत् स्वरूप हैं और तीनोंही एक साथ होते हैं। परन्तु जिसकी विवक्षा की जाय अथवा जिसका लक्ष्य बनाया जाय सत् उसी स्वरूप है । सत् ही स्वयं उत्पाद स्वरूप है, सत् ही व्यय स्वरूप है और सत् ही ध्रौव्य स्वरूप है ।
दृष्टान्त--- संदृष्टिद्रव्यं सता घटेनेह लक्ष्यमाणं सत् ।
केवलमिह घटमात्रमसता पिण्डेन पिण्डमात्रं स्यात ॥ २२३ ॥ ___ अर्थ-~-दृष्टान्त के लिये मिट्टी द्रव्य है । जिस x समय वह मिट्टी सत् स्वरूप बटका लक्ष्य होती है । उस समय वह केवल बट मात्र है और निम समय वह अमत् स्वरूप पिण्ड का लक्ष्य होती है, तब पिण्ड मात्र है।
यदि वा तु लक्ष्यमाणं केवलमिह मृञ्च मृत्तिकात्त्वेन । एवं चैकस्य सतो व्युत्पादादियश्च तत्रांशाः॥२६४॥
अर्थ-यदि वह मिट्टी मिट्टीपनेका ही केवल लक्ष्य बनाई जाती है तब वह केवल मिट्टी मात्र है । इप्त प्रकार एक ही सत् (द्रव्य) के उत्पाद व्यय ध्रौव्य, ऐसे तीन अंश होते हैं ।
न पुनः सतो हि सर्गः केनचिदंशैकभागमात्रेण ।
संहारो वा धौव्यं वृक्षे फलपुष्पपत्रवन्न स्यात् ॥ २२५ ॥
अर्थ--ऐसा नहीं है कि सत् ( द्रव्य ) का ही किसी एक भागसे उत्पाद हो, और उसीका किसीएक भागसे व्यय हो, और उसीका एक भागसे ध्रौव्य रहता हो। जिस प्रकार कि वृक्षके एक भागमें फल हैं तथा एक भागमें पुष्प हैं और उसके एक भागमें पत्ते हैं। किन्तु ऐसा है कि सत् ही उत्पाः रूप है, गत् ही व्यय रूप है, और सत् ही ध्रौव्य स्वरूप है।
- यहांपर जिस समय' से आशय केवल विवक्षासे है। जैसी विवक्षा होती है मिट्टी उसी स्वरूप समझीजाती है । वास्तवमें तीनोंका समयभेद नहीं है ।
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