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पञ्चाध्यायी ।
[ प्रथम
भावार्थ- सत् गुण सभी द्रव्यों में समान रीतिसे पाया जाता है इसलिये सभी द्रव्य सत् कहलाते हैं, परन्तु ज्ञान गुण सभी द्रव्यों में नहीं पाया जाता किन्तु जीवमें ही पाया जाता है इसलिये ज्ञान विशेष गुण है और सत् सामान्य गुण है । इसी प्रकार सभी कयोंमें सामान्य गुण समान हैं, और विशेष गुण जुदे जुड़े हैं ।
पर्यायका लक्षण कहनेकी प्रतिज्ञा---
उक्तं हि गुणानामिह लक्ष्यं तलक्षणं यथाऽऽगमतः । सम्प्रति पर्यायाणां लक्ष्यं तलक्षणं च वक्ष्यामः ॥ १६४ ॥ अर्थ – इस ग्रन्थ में आगमके अनुसार गुणोंका लक्ष्य और लक्षण तो कहा गया, पर्यायोंका लक्ष्य और लक्षण कहते हैं ।
अब
पर्यायका लक्षण -
afat after अथ च व्यतिरेकिणश्च पर्यायाः । उत्पादव्ययरूपा अपि च धौव्यात्मकाः कथञ्चिच्च ॥ १६५ ॥ अर्थ - पर्यायें क्रमवर्ती, अनित्य, व्यतिरेकी, उत्पादव्ययस्वरूप और कथंचित् धौव्य स्वरूप होती हैं ।
तत्र व्यतिरेकित्वं प्रायः प्रागेव लक्षितं सम्यक् । अवशिष्टविशेषमितः क्रमतः मँलक्ष्यते यथाशक्ति ।। १६६ ॥
अर्थ --- पर्यायोंका व्यतिरेकीपना तो गुणोंक कथनमें सिद्ध किया जा चुका है। अब बाकीके लक्षण क्रमसे यथाशक्ति यहांपर कहे जाते हैं ।
क्रमवर्तित्वका लक्षण -
अस्त्यत्र य प्रसिद्धः क्रम इति धातुश्र पादविक्षेपे । क्रमति क्रम इति रूपस्तस्य स्वार्थानतिक्रमादेषः ॥ १३७ ॥ वर्तन्ते ते नयतो भवितुं शीलास्तथा स्वरूपेण । यदि वा स एव वर्ती येषां क्रमवर्तिनस्त एवार्थात् ॥ १६८ ॥
अर्थ - पादविक्षेपका अर्थ होता है क्रमसे गमन करना अथवा क्रमसे होना, इसी अर्थमा प्रमिद्ध है । उसीका क्रम शब्द बना है । यह शब्द अपने अर्थका उल्लंघन नहीं करता है । क्रमसे जो वर्तन करे अर्थात् क्रपसे जो होवे उन्हें क्रमवर्ती कहते हैं अथवा स्वरूपसे होनेका जिनका स्वभाव है उन्हें क्रमवर्ती कहते हैं । अथवा क्रम ही जिनमें होता रहे उन्हें ही अनुगत- अर्थ होनेसे पर्ती करते हैं ऐसी कपनती पर्यायें होती हैं ।
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