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________________ सुबोधिनी टीका । इसीका खुलासा अर्थ १६९ ॥ अयमर्थः प्रागेकं जातं समुच्छिद्य जायते चैकः । अथ नष्टे सति तस्मिन्नन्यो प्युत्पद्यते यथा देशः ॥ अर्थ - पर्याये क्रमवर्ती हैं, इसका यह अर्थ है कि जिस प्रकार पहले एक पर्याय हुई, फिर उसका नाश होनेपर दूसरी हुई, उस दूसरीका भी नाश होनेपर तीसरी हुई इसी प्रकार पूर्व पूर्व पर्यायोंके नाश होनेपर जो उत्तरोत्तर पर्यायें क्रमसे होती जाती हैं इसीका नाम क्रमवर्ती है । अनन्त गुणोंके एक समयवर्ती अभिन्न पिण्डको देश कहते हैं। एक समयका देश दूसरे समयसे भिन्न है । यहां पर देशसे पर्यायका ग्रहण होता है । शंकाकार अध्याय । ] ननु यद्यस्ति स भेदः शब्दकृतो भवतु वा तदेकार्थात् । व्यतिरेकक्रमयोरिह को भेदः पारमार्थिकस्त्विति चेत् ॥ १७० ॥ अर्थ - यदि व्यतिरेकीपन और क्रमवर्तीपन में शब्द भेद ही माना जाय तब तो ठीक है। क्योंकि दोनों का एक ही अर्थ है । यदि इन दोनोंमें अर्थ भेद भी माना जाता है। तव बतलाना चाहिये कि वास्तवमें इन दोनोंमें क्या भेद है ? [ ५५ उत्तर तन्न यतोस्ति विशेषः सदंशधर्मे द्वयोः समानेपि । स्थूलेष्विव पर्यायेष्वन्तर्लीनाश्च पर्ययाः सूक्ष्माः ॥ १७१ ॥ अर्थ - शंकाकारका यह कहना " कि व्यतिरेकी और क्रमवती दोनोंका एक ही अर्थ है " ठीक नहीं है । क्योंकि द्रव्य के पूर्व समय वर्ती और उत्तर समय वर्ती अंशोंमें समानता होने पर भी विशेषता है । जिस प्रकार स्थूल पर्यायोंमें सूक्ष्म पर्यायें अन्तर्लीन (गर्भित ) हो जाती हैं परन्तु लक्षण भेदसे भिन्न हैं, उसी प्रकार व्यतिरेकी और क्रमवर्ती भी भिन्न हैं । भावार्थ - द्रव्यका प्रतिक्षण जो परिणमन होता है उसके दो भेद हैं। एक समयवर्ती परिणमनकी अपेक्षा द्वितीय समयवर्ती परिणमन में कुछ समानता भी रहती है और कुछ असमानता भी रहती है । दृष्टान्तके लिये बालकको ही ले लीजिये । बालककी हरएक समय में अवस्थायें बदलती रहती हैं । यदि ऐसा न माना जावे तो एक वर्ष बाद बालकमें पुष्टता और लम्बाई नहीं आना चाहिये । और वह एक दिनमें नहीं आजाती है प्रति समय बढ़ती रहती हैं परन्तु हमारी दृष्टि वालककी जो पहले समयकी अवस्था है वही दूसरे समयमें दीखती है, इसका कारण वही सदृश परिणमन है । जो असंदेश - अंश है वह सूक्ष्म है इन्द्रियोंद्वारा उसका ग्रहण नहीं होता हैं सदृश - परिणमन अनेक समयों में एकसा है इसीलिये कहा जाता है कि स्थूल पर्याय चिरस्थायी है और इसी अपेक्षासे पर्यायको कथंचित् भौव्य स्वरूप कहा है। । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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