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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका।
सारांश-- अयमर्थः सन्ति गुणा अपि किल परिणामिनः स्वतः सिद्धाः। नित्यानित्यत्वादप्युत्पादादित्रयात्मकाः सम्यक् ॥ १५९ ॥
अर्थ----उपर्युक्त कथनका सारांश यह है कि गुण भी नियमसे स्वतः सिद्ध परिणामी हैं इसलिये वे कथंचित् नित्य भी हैं और कथंचित् अनित्य भी हैं, और इसीसे उनमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य अच्छी तरह घटते हैं।
गुणाम भेद-~अस्ति विशेषस्तेषां सति च समाने यथा गुणत्वेपि । साधारणास्त एके केचिदसाधारणा गुणाः सन्ति ॥ १६०॥
अर्थ-यद्यपि गुणत्व सामान्यकी अपेक्षासे सभी गुणोंमें समानता है, तथापि उनमें विशेषता भी है। कितने ही उनमें साधारण गुण हैं, और कितने ही असाधारण गुण हैं।
साधारण और असाधारणका अर्थसाधारणास्तु यतरे ततरे नान्ना गुणा हि सामान्याः। ते चाऽसाधारणका यतरे ततरे गुणा विशेषाख्याः ॥ १६१ ॥
अर्थ-जितने साधारण गुण हैं वे सामान्य गुण कहलाते हैं, और नितने असाधारण गुण हैं वे विशेष गुण कहलाते हैं।
भावार्थ-जो गुण सामान्य रीतिसे हरएक द्रव्यमें पाये जाय, उन्हें तो सामान्य अथवा साधारण गुण कहते हैं । और जो गुण खास २ द्रव्यमें ही पाये जाय उन्हें विशेष अथवा असाधारण गुण कहते हैं । अर्थात् जो सब द्रव्योंमें रहें वे सामान्य और जो किसी विशेष द्रव्यमें रहे वे विशेष कहलाते हैं।
ऐसा क्यों कहा जाता है ? तेषामिह वक्तव्ये हेतुः साधारणैर्गुणैर्यस्मात् । द्रव्यत्वमस्ति साध्यं द्रव्यविशेषस्तु साध्यते वितरैः॥ १६२ ॥
अर्थ--ऐसा क्यों कहाजाता है ? इसका कारण यह है कि साधारण गुणोंसे तो द्रव्य सामान्य सिद्ध किया जाता है, और विशेष गुणोंसे द्रव्य विशेष सिद्ध किया जाता है।
उदाहरणसंदृष्टिः सदिति गुणः म यथा द्रव्यत्वसाधको भवति ।
अथ च ज्ञानं गुण इति द्रव्यविशेषस्य साधको भवति ॥१६॥
अर्थ---उदाहरण इस प्रकार है कि सत् ( अस्तित्व ) यह गुण सामान्य द्रव्यका . साधक है, और ज्ञान गुण द्रव्य विशेष ( जीव ) का साधक है।
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