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पञ्चाध्यायी।
[ प्रथम
'तत एव यथाऽनेके पर्यायाः सैष नेति लक्षणतः।।
व्यतिरेकिणश्च न गुणास्तथेति सोऽयं न लक्षणाभावात् ॥१५४॥
अर्थ-इस लिये जिस प्रकार अनेक पर्यायें " यह वह नहीं है " इस लक्षणसे व्यतिरकी हैं, उस प्रकार अनेक भी गुण " यह वह नहीं है " इस लक्षणके न घटनेसे व्यतिरेकी नहीं हैं।
किन्तु-- तल्लक्षणं यथा स्याज्ज्ञानं जीवो य एव तावांश्च ।
जीवो दर्शनमिति वा तदभिज्ञानात् स एव तावांश्च ॥१५॥
अर्थ-गुणोंमें अन्वय लक्षण ही घटता है । जिस समय जीवको ज्ञान स्वरूप कहा जाता है, उस समय वह उतना ही है और जिस समय जीवको दर्शन स्वरूप कहा जाता है उस समय वह उतना ही है । ज्ञान अथवा दर्शन रूप जीवको कहनेसे उसमें ' यह वही है' ऐसा ही प्रत्यभिज्ञान होता है।
एष क्रमः सुखादिषु गुणेषु वाच्यो गुरूपदेशाला।।
यो जानाति स पश्यति सुखमनुभवतीति स एव हेतोश्च ॥१५६॥
अर्थ-पूर्वाचार्योंके कथनानुसार यही क्रम सुखादिक गुणोंमें भी लगा लेना चाहिये। जो जीव जानता है, वही देखता है और वही सुखका अनुभवन करता है। इन सब कार्योंमें " यह वही है " ऐसी ही प्रतीति होती है।
अर्थ शब्दका अन्वर्यअथ चोद्दिष्टं प्रागप्यर्था इति संज्ञया गुणा वाच्याः।
तदपि न रूढिवशादिह किन्त्वर्थाद्यौगिकं तदेवेति ॥ १५७ ॥
अर्थ-यह पहले कहा जा चुका है कि अर्थ नाम गुणका है, वह भी केवल रूढ़िवशसे नहीं है किन्तु वह यौगिक रीतिसे है ।
अर्थका यौगिक अर्थस्यादृगिताविति धातुस्तद्रूपोयं निरुच्यते तज्ज्ञः । । अत्यानुगतार्थादनादिसन्तानरूपतोपि गुणः ॥ १५८ ॥ . अर्थ-'ऋ' एक धातु है, गमन करना उसका अर्थ है । उसी धातुका यह 'अर्थ' शब्द बना है ऐसा व्याकरणके जानकार कहते हैं। जो गमन करें उसे अर्थ कहते हैं । गुण अनादि सन्तति रूपसे साथ २ चले जाते हैं। इसलिये गुणका अर्थ नाम अन्वर्थक (यथार्थ) ही है।
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