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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका । [ ५१ मात्र देशवाली ठहरेगी । और ऐसा मानना ठीक नहीं है एक अंश मात्र देशकी स्वीकारता में पहले ही बाधा दी जा चुकी है। स्पष्टार्थ अयमर्थः पर्यायाः प्रत्येकं किल यथैकशः प्रोक्ताः । व्यतिरेकिणो ह्यनेके न तथाऽनेकत्वतोपि सन्ति गुणाः ॥ १५२ ॥ अर्थ - ऊपर कहे हुए कथनका खुलासा अर्थ इस प्रकार है कि एक २ समय में क्रमसे भिन्न २ होनेवाली जो पर्यायें हैं वे ही व्यतिरेकी हैं, परन्तु गुण अनेक होनेपर भी उस प्रकार व्यतिरेकी नहीं हैं । भावार्थ - जो द्रव्यकी एक समयकी पर्याय है वह दूसरे समय में नहीं रहती, किन्तु दूसरे समय में दूसरी ही पर्याय होती है । इसलिये द्रव्यका एक समयका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भिन्न है, और दूसरे समयका भिन्न है । जो पहले समयका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव है वही दूसरे समयका नहीं है इसलिये पर्यायें व्यतिरेकी हैं क्योंकि व्यतिरेकका लक्षण ही यही है कि यह वह नहीं है, पर्यायें अनेक हैं और वे भिन्न २ हैं इसलिये यह वह नहीं है ऐसा व्यतिरेक उनमें अच्छी तरह घटता है, परन्तु गुणोंमें यह बात नहीं है । यद्यपि गुण भी अनेक हैं तथापि उनमें ( प्रत्येक गुण में ) यह वह नहीं है, ऐसा व्यतिरेक नहीं घटता । किन्तु प्रत्येक गुण अपनी अनादि- - अनन्त अवस्थाओं में पाया जाता है । इसलिये प्रत्येक गुणमें यह वही है, ऐसा अन्वय ही घटता है । गुणी अन्वयीपना दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करते हैं किन्त्येकशः स्वबुद्धी ज्ञानं जीवः स्वसर्वसारेण । अथ चैकशः स्ववुडी हग्वा जीवः स्वसर्वसारेण ॥ १५३ ॥ अर्थ — किसीने अपनी बुद्धिमें सर्वस्वतासे ज्ञानको ही जीव समझा, और दूसरेने अपनी बुद्धिमें सर्वस्वतासे दर्शनको ही जीव समझा । भावार्थ - एकने ज्ञान गुणकी मुख्यतासे जीवको ग्रहण किया है और दूसरेने दर्शन गुणी मुख्यतासे जीवको ग्रहण किया है, परन्तु दोनोंने उसी जीवको उतना ही ग्रहण किया है । यद्यपि ज्ञान गुण भिन्न है और दर्शन गुण भिन्न है, इसी प्रकार और भी जितने गुण हैं। सभी भिन्न २ हैं, तथापि वे परस्पर अभिन्न हैं, इसी लिये जो यह कहता है कि " ज्ञान है सो जीव है " वह यद्यपि जीवको ज्ञानकी प्रधानतासे ही ग्रहण करता है, परन्तु जीव तो ज्ञान रूपी ही केवल नहीं है किन्तु दर्शनादि स्वरूप भी है । इस लिये गुणोंमें अनेकता होनेपर भी " पर्यायोंकी तरह " यह वह नहीं है " ऐसा व्यतिरेक नहीं घटता इसी बातको आगेके श्लोकोंसे स्पष्ट करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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