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अध्याय। सुबोधिनी टीका।
[ २९ द्रव्य कहना, दोनोंका एक ही अर्थ है । गुणोंसे पर्यायोंको अभिन्न समझकर ही अखण्ड अनन्त गुणोंकी त्रिकालवर्ती पर्यायोंको ही द्रव्य कहा गया है।
तथा फिर मी इसीका स्पष्ट अर्थअयमत्राभिप्रायो ये देशास्तद्गुणास्तदंशाश्च । एकालापन समं द्रव्यं नाम्ना त एव निश्शेषम् ॥ ७४ ॥
अथे----उपर्युक्त कथनका यह अभिप्राय है कि जो देश हैं, उन देशों में रहनेवाले जो गुण हैं तथा उन गुणोंके जो अंश हैं उन तीनोंकी ही एक आलाप ( एक शब्द द्वारा ) से द्रव्य संज्ञा है।
नहि किञ्चित्सद्व्यं केचित्सन्तो गुणाः प्रदेशाश्च ।
केचित्सन्ति तदंशा द्रव्यं तत्सन्निपाताबा ॥ ७॥
अर्थ--ऐसा नहीं है कि द्रव्य कोई जुदा पदार्थ हो, गुण कोई जुदा पदार्थ हो, प्रदेश जुदा पदार्थ हो, उनके अंश कोई जुदा पदार्थ हो, और उन सबके मिलापसे द्रव्य कहलाता हो।
तथा ऐसा भी नहीं है.--. अथवापि यथा भित्तौ चित्रं द्रव्ये तथा प्रदेशाश्च । ...
सन्ति गुणाश्च तदंशाः समवायित्त्वात्तदाश्रयाद्व्यम् ।।७६ ॥
अर्थ-अथवा ऐसा भी नहीं है कि जिस प्रकार भित्तिमें चित्र खिचा रहता है अर्थात् जैसे भीतिमें चित्र होता है वह भित्तिमें रहता है परन्तु भित्तिसे जुदा पदार्थ है उसी प्रकार द्रव्यमें प्रदेश, गुण, अंश रहते हैं और समवाय सम्बन्धसे उनका आश्रय द्रव्य है।
भावार्थ-ऐसा नहीं है कि देश, देशांश, गुण, गुणांश चारों ही जुदे २ पदार्थ हों, और उनका समूह द्रव्य कहलाता हो, किन्तु चारों ही अखण्ड रूपसे द्रव्य कहलाते हैं । भेद विवक्षासे ही चार जुदी २ संज्ञायें कहलाती हैं, अभेद विवक्षासे चारों ही अभिन्न हैं औ उसी चारोंकी अभिन्नताको द्रव्य कहते हैं।
उदाहरणइदमस्ति यथा मूलं स्कन्धः शाखा दलानि पुष्पाणि ।
गुच्छाः फलानि सर्वाण्येकालापात्तदात्मको वृक्षः ॥ ७७ ॥
अर्थ-जिस प्रकार जड़, स्कन्ध (पीड़ ) शाखा, पत्ते, पुष्प, गुच्छा, फल, सभीको. मिलाकर एक आलाप ( एक शब्द ) से वृक्ष कहते हैं। वृक्ष जड़, स्कन्ध, शाखा आदिसे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है किन्तु इनका समुदाय ही वृक्ष कहलाता है, अथवा वृक्षको छोड़कर
_ * मिन्न २ पदार्थोंके घनिष्ट नित्य सम्बन्धको समवाय सम्बन्ध कहेत हैं। गुण, गुणीको भिन्न मानकर उनका नित्य सम्बन्ध नैयायिक दर्शन मानता है।
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