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पञ्चाध्यायी ।
वस्तुकी असत्ता और एकांशता दोष-
तत्रासवे वस्तुनि न श्रेयसास्य साधकाभावात् ।
एवं चैकांशत्वे महतो व्योम्नोऽप्रतीयमानत्वात् ॥ २९ ॥ अर्थ- वस्तुको असत् (अभाव) रूप स्वीकार करना ठीक नहीं है । क्योंकि वस्तु असत् स्वरूप सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है । दूसरा यह भी अर्थ हो सकता है कि वस्तुको अभाव रूप मानने से वह किसी कार्यको सिद्ध न कर सकेगी । इस प्रकार वस्तुमें अंश भेद न मानने से आकाशकी महानताका ज्ञान नहीं हो सकेगा ।
भावार्थ- पहले तो पदार्थको अभावात्मक सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है । दूसरेजो अभाव रूप है वह कोई पदार्थ ही नहीं हो सक्ता । जो अपनी सत्ता ही नहीं रखता वह किसी कार्य में किस प्रकार साधक हो सक्ता है । इसी प्रकार वस्तुमें जब अंशोंकी कल्पना की जाती है तब तो यह बात सिद्ध हो जाती है कि जिस वस्तुके जितने अधिक अंश वह उतनी ही बड़ी है । जिसके जितने कम अंश हैं वह उतनी ही छोटी है । आकाशके सव वस्तुओं से अधिक अंश हैं, इस लिये वह सबसे महान् ठहरता है । यदि देशोंशोंकी कल्पनाको उठा दिया जाय तो छोटे बड़ेका भेद भी उठ जायगा ।
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अंशकल्पनासे लाभ-
J किश्चैतदंशकल्पनमपि फलवत्स्याद्यतोनुमीयेत ।
काय त्वमकायत्वं द्रव्याणामिह महत्वममहत्वम् ॥ ३० ॥ अर्थ - अंश कल्पनासे एक तो छोटे बड़ेका भेड़ ज्ञान ऊपर बतलाया गया है। दूसरा अंश कल्पनासे यह भी फल होता है कि उससे द्रव्यों में कायत्व और अकायत्वका अनुमान कर लिया जाता है इसी प्रकार छोटे और बड़ेका भी अनुमान कर लिया जाता है ।
[ प्रथम
भावार्थ - जिन द्रव्यों में बहुत प्रदेश होते हैं वे अस्तिकाय समझे जाते हैं, और जिसमें केवल एकही प्रदेश होता है वह अस्तिकाय नहीं समझा जाता । बहुप्रदेश और एक प्रदेशका ज्ञान तभी हो सक्ता है जब कि उस द्रव्य के प्रदेशों (अंशों ) की जुदी जुदी कल्पना कि जाय । विना जुदी जुदी कल्पना किये प्रदेशोंकी न्यूनाधिकताका बोध भी नहीं हो सक्ता है । और बिना न्यूनाधिकताका बोध हुए, द्रव्योंमें कौन द्रव्य छोटा है, और कौन बड़ा है यह परिज्ञान भी नहीं हो सक्ता । इसलिये अंशोंकी कल्पना करना सफल है ।
शङ्काकार
भवतु विवक्षितमेतन्ननु यावन्तो निरंशदेशांशाः तल्लक्षणयोगादप्पणुवद्रव्याणि सन्तु तावन्ति ॥ ३१ ॥
अर्थ - शंकाकार कहता है कि यह तुम्हारी विवक्षा रहो, अर्थात् तुम जो द्रव्य में
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