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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका।
निरंश (फिर जिसका खण्ड न हो सके) अंशोंकी कल्पना करते हो, वह करो। परन्तु जितने भी निरंश-देशांश हैं उन्हींको एक एक द्रव्य समझो। जिस प्रकार परमाणु एक द्रव्य है उसी प्रकार एक द्रव्यमें जितने निरंश-देशांशोंकी कल्पना की जाती है, उनको उतने ही द्रव्य समझना चाहिये न कि एक द्रव्य मानकर उसके अंश समझो । द्रव्यका लक्षण उन प्रत्येक अंशोंमें जाता ही है।
भावार्थ-गुण समुदाय ही द्रव्य कहलाता है। यह व्यका लक्षण द्रव्य के प्रत्येक देशां: शमें मौजूद है, इसलिये नितने भी देशांश है उतने ही उन्हें द्रव्य समझना चाहिो।
उत्तरनवं यतो विशेषः परमः स्यात्पारिणामिकोऽध्यक्षः ।
खण्डैकदेशवस्तुन्यखण्डितानेकदेशे च ॥ ३२॥
अर्थ-उक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि खण्डस्वरूप एकदेश वस्तु माननेसे और अखंड स्वरूप अनेक देश वस्तु माननेसे परिणमनमें बड़ा भारी भेद पड़ता है यह वात प्रत्यक्ष है।
भावार्थ-यदि शंकाकारके कहनेके अनुसार देशांशोंको ही द्रव्य माना जावे तो द्रव्य एक देशवाला खण्ड खण्ड रूप होगा, अखण्ड रूप अनेक प्रदेशी नहीं ठहरेगा, खण्डरूर एक प्रदेशी माननेमें क्या दोष आता है सो आगे लिखा जाता है--
प्रथमोद्देशितपक्षे यः परिणामो गुणात्मकस्तस्य ।
एकत्र तत्र देशे भवितुं शीलो न सर्वदेशेषु ॥ ३३ ॥
अर्थ-पहला पक्ष स्वीकार करनेसे अर्थात् खण्डरूप एक प्रदेशी द्रव्य माननेसे मो गुणोंका परिणमन होगा वह सम्पूर्ण वस्तुमें न होकर उसके एक ही देशांशमें होगा। क्योंकि शंकाकार एक देशांशरूप ही वस्तुको समझता है इसलिये उसके कथनानुमार गुणोंका परिणमन एक देशमें ही होगा।
एकदेश परिणमन माननेमें प्रत्यक्ष बाधा-- तदसत्प्रमाणवाधितपक्षत्वादक्षसंविदुपलब्धेः । देहैकदेशविषयस्पर्शादिह सर्वदेशेषु ॥ ३४ ॥
अर्थ-गुणोंका परिणमन एक देशमें होता है, यह बात प्रत्यक्ष वाधित है । जिसमें प्रमाण-बाधा आवे वह पक्ष किसी प्रकार ठीक नहीं हो सक्ता । इन्द्रियजन्य ज्ञानसे यह बात सिद्ध है कि शरीरके एक देशमें स्पर्श होनेसे सम्पूर्ण शरीरमें रोमाञ्च हो जाते हैं ।
भावार्थ-शरीर प्रमाण आत्म द्रव्य है इसीलिये शरीरके एक देशमें स्पर्श होनेसे सम्पूर्ण शरीरमें रोमाश्च होते हैं अथवा शरीरके एक देशमें चोट लगनेसे सम्पूर्ण शरीरमें वेदना होती है । यदि शंकाकारके कथनानुसार आत्माका एक २ अंश ( प्रदेश ) ही एक एक आत्म
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