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________________ - अध्याय ।। सुबोधिनी। [ १५ गोलिया हैं उन्हें स्वक्षेत्र अर्थात् देशांशके स्थानमें समझना चाहिये । क्योंकि वह गोला रूप समस्त चूर्ण उन्हीं गोलियोंमें पर्याप्त है। उन *गोलियों में जो एक लक्ष औषधियां हैं उन्हें स्वभाव अर्थात् गुणके स्थानमें समझना चाहिये । और उन गोलियों में जो कालक्रमसे भिन्न २ स्वाद भेद है उसे स्वकाल अर्थात् गुणांशके स्थानमें समझाना चाहिये । प्रत्येक द्रव्यका स्वचतुष्टय मिन्न २ है। इस स्वचतुष्टयमें ही प्रत्येक द्रव्य पर्याप्त है । शंकाकारएतेन विना चैक द्रव्यं सम्यक प्रपश्यतश्चापि । को दोषो यगीतेरियं व्यवस्थैव साधुरस्त्विति चेत् ॥२७॥ अर्थ-ऊपर कही हुई व्यवस्थाका तो प्रत्यक्ष नहीं है; केवल एक द्रव्य ही भली भांति दीख रहा है, इस अवस्थामें कौनसा दोष आता है कि जिसके डरसे उपर्युक्त व्यवस्था ही ठीक मानी जावे। भावार्थ-शंकाकारका अभिप्राय इतना ही है कि एक द्रव्यको ही मान लिया जावे जो कि स्थूलतासे दीख रहा है, उस द्रव्यमें देश, देशांश, गुण, गुणांश (स्वचतुष्टय) माननेकी क्या आवश्यकता है? उत्तरदेशाभावे नियमात्सत्त्वं द्रव्यस्य न प्रतीयेत । देशांशाभावेपि च सर्व स्यादेकदेशमात्रं वा ॥ २८॥ अर्थ-यदि देशहीन माना जावे तो द्रव्यकी सत्ताका ही निश्चय नहीं हो सकेगा । और देशांशोंके न माननेपर सर्व द्रव्य एक देशमात्र हो जायगा। भावार्थ-अनन्त गुणोंका अखण्डपिण्ड स्वरूप देशके माननेसे ही द्रव्यको सत्ता प्रतीत होती है। यदि पिण्डरूप देश न माना जावे तो द्रव्यकी सत्ता ही नहीं ठहरती। इसी प्रकार देशांशके माननेसे द्रव्यकी इयत्ता (परिमाण)का ज्ञान होता है। जितने जिस द्रव्यके अश होते हैं वह द्रव्य उतना ही बड़ा समझा जाता है। यदि देशके अंशों ( विस्तार क्रमसे ) की कल्पना न की जाय तो सभी द्रव्य समान समझे जावेंगे । अंशविभाग न होनेसे सत्रहीका एक ही अंश स. मझा जायगा। ___ * जो क्षेत्र एक औषधिका है, वही क्षेत्र लक्ष औषधियोंका है। जितनी भी गोलियां बनाई गई हैं सभीमें लक्ष औषिधियां हैं। उसी प्रकार एक गुण जितने देशमें है दूसरा भी उसी देशमें हैं। इसलिये सभी गुणोंका एक ही देश है । अर्थात् विष्कंभ क्रमसे होनेवाले वस्तुके प्रत्येक प्रदेशमें अनन्त गुण रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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