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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
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शात्मक हैं । प्रमाणरूप-अनेक धर्मात्मक नहीं कहे जासक्ते हैं । इसी वातको पुनः स्पष्ट किया जाता है
तत्रास्ति च नास्ति समं भंगस्यास्यैकधर्मता नियमात् । न पुनः प्रमाणमिव किल विरुद्धधर्मश्याधिरूढत्वन् ॥६८९ ॥ अर्थ — उन भंगोंमें 'स्यादस्ति नास्ति यह एक साथ बोला हुआ भंग नियमसे एक धर्मवाला है । वह प्रमाणके समान नहीं कहा जा सक्ता क्योंकि प्रमाण एक ही समय में दो विरुद्ध धर्मोका मैत्रीभावसे प्रतिपादन करता है । उस प्रकार यह भंग विरुद्ध दो धर्मोका प्रतिपादन नहीं करता है किन्तु पहले दूसरे भंगकी मिली हुई तीसरी ही अवस्थाका प्रतिपादन करता है इसलिये वह ज्ञान भी अंशरूप ही है ।
अयमर्थश्वार्थवशादथ च विवक्षावशात्तदंशत्वम् ।
युगपदिदं कथ्यमानं क्रमाज्ज्ञेयं तथापि तत्स यथा ॥ ६२० ॥ अर्थ — ऊपर कहे हुए कथनका यह आशय है कि प्रयोजनवश अथवा विवक्षावश युगपत् क्रमसे कहा हुआ जो भंग है वह अंशरूप है इसलिये वह नय ही है । अस्ति स्वरूपसिद्धेर्नास्ति च पररूपसिड्यभावाच्च । अपरस्योभयरूपादितस्ततः कथितमस्ति नास्तीति ॥ ३९९ ॥
अर्थ -- वस्तुमें निजरूपकी अपेक्षासे अस्तित्व है, यह प्रथम भंग है । उसमें पर रूपकी अपेक्षासे नास्तित्व है, यह द्वितीय भंग है । तथा स्वरूपकी अपेक्षा से अस्तित्व पररूपकी अपेक्षासे नास्तित्व ऐसा तृतीय भंग उभयरूपकी अपेक्षासे अस्ति नास्ति रूप कहा गया है । अर्थात् (१) स्यादस्ति ( २ ) स्यान्नास्ति ( ३ ) स्यादस्तिनास्ति । ये तीन भंग स्वरूप, पररूप, स्वरूप पररूपकी, अपेक्षासे क्रमसे जान लेने चाहिये । प्रमाणका स्वरूप इन भंगों से जुदा ही है
उक्तं प्रमाणदर्शनमस्ति स योयं हि नास्तिमानर्थः । भवतीदमुदाहरणं न कथञ्चित्रै प्रमाणतोऽन्यत्र ॥ ६९२ ॥
अर्थ - प्रमाणका जो स्वरूप कहा गया है वह नयोंसे जुदा ही है वह इस प्रकार है जो पदार्थ अस्तिरूप है वही पदार्थ नास्तिरूप है । तृतीयभंग में स्वरूपसे अस्तित्व और पररूपसे नास्तित्व क्रमसे कहा जाता है प्रमाणमें दोनों धर्मोका प्रतिपादन समकालमें प्रत्यभिज्ञानरूपसे कहा जाता है । जो अस्ति रूप है वही नास्ति रूप है, यह उदाहरण प्रमाणको छोड़कर अन्यत्र किसी प्रकार भी नहीं मिल सक्ता है, अर्थात् नयों द्वारा ऐसा विवेचन नहीं किया जा सक्ता । नयोंसे युगपत् ऐसा विवेचन क्यों नहीं हो सक्ता ? उसे ही स्पष्ट करते है
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