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पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
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तदभिज्ञानं हि यथा वक्तुमशक्यात् समं नयस्य यतः।
अपि तुर्यो नयभंगस्तत्त्वावक्तव्यतां श्रितस्तस्मात् ॥ ६९३ ॥
अर्थ---उसका कारण यह है कि नय एक साथ दो धर्मोका प्रतिपादन करनेमें असमर्थ है । इसलिये एक साथ दो धर्मोके कहनेकी विवक्षामें 'अवक्तव्य' नामक चौथा भंग होता है । यह भंग भी एक अंशात्मक है। जो नहीं बोला जा सके उसे अबक्तव्य कहते हैं एक समयमें एक ही धर्मका विवेचन हो सक्ता है, दो का नहीं ।
परन्तुन पुनर्वक्तुमशक्यं युगपद्धर्मवयं प्रमाणस्य । क्रमवर्ती केवलमिह नया प्रमाणं न तददिह यस्मात् ॥ ६९४ ॥
अर्थ-परन्तु प्रमाणके विषयभूत दो धर्म एक साथ कहे नहीं जा सक्ते ऐसा नहीं है, किन्तु एक साथ दोनों धर्म कहे जाते हैं । क्रमवर्ती केवल नय है, नयके समान प्रमाण क्रमवर्ती नहीं है, अर्थात् प्रमाण चतुर्थ नयके समान अवक्तव्य भी नहीं है और तृतीय नयके समान वह क्रमसे भी दो धर्मोका प्रतिपादन नहीं करता है, किन्तु दोनों धर्मोका समकाल ही प्रतिपादन करता है । इसलिये नय युग्मसे प्रमाण भिन्न ही है ।
यत्किल पुनः प्रमाणं वक्तुमलं वस्तुजातमिह यावत् ।
सदसदनेकैकमथो नित्यानित्यादिकं च युगपदिति ॥ ६९५ ॥
अर्थ-वह प्रमाण निश्चयसे वस्तु मात्रका प्रतिपादन करनेमें समर्थ है, अथवा सत् असत् एक अनेक, नित्य अनित्य, इत्यादि अनेक धर्मोका युगपत् प्रतिपादन करनेमें प्रमाण ही समर्थ है।
प्रमाणकै भेदअथ तद् द्विधा प्रमाणं ज्ञानं प्रत्यक्षमथ परोक्षश्च ।
असहायं प्रत्यक्ष भवति परोक्षं सहायसापेक्षम् ॥ ६९६ ॥
अर्थ-प्रमाणरूप ज्ञानके दो भेद हैं, (१) प्रत्यक्ष (२) परोक्ष । जो ज्ञान किसीकी सहायताकी अपेक्षा नहीं रखता वह प्रत्यक्ष है, और जो ज्ञान दूसरोंकी सहायताकी अपेक्षा रखता है वह परोक्ष है। भावार्थ-जो ज्ञान विना इन्द्रिय, मन आलोक आदि सहायताके केवल आत्मासे होता है वह प्रत्यक्ष है, और जो ज्ञान इन्द्रियादिकी सहायतासे होता है वह परोक्ष है।
प्रत्यक्षके भेद प्रत्यक्षं द्विविधं तत्सकलप्रत्यक्षमक्षयं ज्ञानम् । क्षायोपशमिकमपरं देशप्रत्यक्षमक्षयं क्षयि च ॥१९॥
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