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________________ पञ्चाध्यायी। [प्रथम - RO अर्थ-'स्यात् अस्ति नास्ति' यह एक साथ कहा हुआ नययुग्म एक भङ्ग कहलाता है। यह भंग एक अंशका ग्रहण करनेवाला नय कैसे कहा जा सक्ता है, इसमें 'अस्ति नास्ति' ऐसे दो अंश आचुके हैं इसलिये यह प्रमाण क्यों नहीं कहा जाता है ? दूसरी बात यह भी है कि 'अस्ति नास्ति' ये एक साथ कहे जाते हैं तो फिर प्रमाणका नाश ही हो जायगा । कारण अस्ति नास्तिको एक साथ कहनेवाला एक भंग ही है उसीसे कार्य चल जाता है फिर प्रमाणका लोप ही समझना चाहिये, अथवा यदि यह कहा जाय कि अस्ति नास्ति क्रमसे होते हैं तो यह कहना अपने नाशके लिये स्वयं अपना शत्रु है । कारण क्रमसे होनेवाला भंग दूसरा ही है, अथवा यदि यह कहा जाय कि अस्ति नास्ति एक साथ कहा नहीं जा सकता इसलिये वह अवक्तव्यमय भंग है तो ऐसा माननेमें पूर्वापर वाधा आती है। किस प्रमाणसे किस प्रमाणकी सिद्धि हो सक्ती है? अर्थात् यदि एक साथ कथन अवक्तव्य है तो प्रमाणकी सिद्धि करनेवाला कोई प्रमाण नहीं रहेगा क्योंकि प्रमाण तो अवक्तव्य हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि बोलनेवाला नय ही होता है, प्रमाण नहीं, तो ऐसा कथन भी मूलका विघात करनेवाला है क्योंकि प्रमाणको अवक्ता ( नहीं बोलनेवाला ) मान लेने पर अवाच्यताका दोष आता है ? उत्तरनैवं यतः प्रमाणं भंगध्वंसाभंगबोधवपुः । भङ्गात्मको नय इति यावानिह तदंशधर्मत्वात् ॥६८७॥ अर्थ-ऊपर की हुई शंका ठीक नहीं है। क्योंकि प्रमाण भंगज्ञानमय नहीं है किन्तु अभंगज्ञानमय है, भंगज्ञानमय नय होता है, कारण जितना भी नय विभाग है सभी वस्तुके अंशधर्मको विषय करता है । इसलिये___x स यथास्ति च नास्तीति च क्रमेण युगपच्च वानयोर्भगः । ___अपि वाऽवक्तव्यमिदं नयो विकल्पानतिक्रमादेव ॥६८८॥ अर्थ-'स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति' इनका क्रमसे होनेवाला अथवा युगपत् होनेवाला भंग, भंग ही है, अथवा अवक्तव्यरूप भी भंग ही है। इन सब भंगोंमें विकल्पका उल्लंघन नहीं है इसलिये ये सभी भंग नय रूप हैं। भावार्थ-स्यादस्ति स्यान्नास्ति ये दोनों क्रमसे भिन्न २ कहे जाये तो पहला दूसरा भंग होता है यदि इन दोनोंका क्रमसे एक साथ प्रयोग किया जाय तो तीसरा भंग 'स्यादस्ति नास्ति' होता है । यदि इन दोनोंका अक्रमसे एक साथ प्रयोग किया जाय तो 'अवक्तव्य' चौथा भंग होता है । इसलिये ये सव नयके ही भेद हैं और वे सव अं + मूल पुस्तके - मयोरित, ऐसा पाठ है, उसका अर्थ आत्मा है ऐसा होता है परन्तु वह अर्थ यहां पर पूर्वापर सम्बन्ध न होनेसे ठीक नहीं जंचता इसलिये संशोधित पुस्तकका उपर्युक्त स यथास्ति' पाठ लिखा गया है। corporate poolt - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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