SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चाध्यायी । ग्रन्थकारका मङ्गलाचरण और आशय--- पञ्चाध्यायावयवं मम कर्तुर्ग्रन्थराजमात्मवशात् । अलोकनिदानं यस्य वचस्तं स्तुवे महावीरम् ॥ १ ॥ अर्थ- पाँच अध्यायों में बँटे हुए जिस ग्रन्थराजको मैं स्वयं बनानेवाला हूं, उस ग्रन्थराजके बनाने में जिन महावीर स्वामीके वचन मेरे लिये पदार्थोंके प्रकाश करनेमें मूल कारण हैं, उन महावीर स्वामी (वर्तमान - अन्तिम तीर्थकर ) का मैं स्तवन करता हूं । भावार्थ - प्रकार इस लोकद्वारा महावीर स्वामीका स्तवन रूप मङ्गल किया है । जिस प्रकार इष्ट देवका नमस्कार, स्मरण आदिक मङ्गल है, उसी प्रकार उनके गुणों का स्तवेन करना भी मङ्गल है । स्तवन करनेमें भी ग्रन्थकारने महावीर स्वामीकी सर्व जीव हितकारकअलौकिक यि भाषाको ही हेतु ठहराया है । वास्तवमें यह संसारी जीव मोहान्धकारवश पदार्थ यथार्थ स्वरूपको नहीं पहचानता है । जब तेरहवें गुणस्थानवर्ती तीर्थकर के उपदेशसे उसे यथार्थ बोध होता है, तब उस बोधरूपी प्रकाशमें पदार्थोंका ठीक २ विकाश होने लगता है । इसी आशयको ग्रन्थकारने स्पष्ट रीतिसे बतलाया है। मंगलाचरण करते हुए ग्रन्थकारने अपना आशय भी कुछ प्रगट कर दिया है । वे जिस ग्रन्थके बनाने का प्रारम्भ करते हैं, वह एक सामान्य ग्रन्थ नहीं होगा, किन्तु अनेक ग्रन्थोंका राजा - महा ग्रन्थ, होगा । इस वातको हृदय में रखकर ही उन्होंने इसे ग्रन्थरान, पद दिया है। साथ ही वे जिस ग्रन्थको M बनानेवाले हैं, उस ग्रन्थको पाँच मूल वातों में जैसे-द्रय विभाग, सम्यक्त्व विभाग आदि रूप से विभक्त करनेका उद्देश्य स्थिर कर चुके हैं, तभी उन्होंने इस ग्रन्थका यौगिकै रीतिसे " पञ्चाध्यायी " ऐसा नाम रक्खा है । पांचों परमेष्ठियोंको नमस्कार २ ] शेषानपि तीर्थकराननन्तसिद्धानहं नमामि समम् धर्माचार्याध्यापक साधुविशिष्टान् मुनीश्वरान् वन्दे ॥२॥ १ आदौ मध्येऽवसाने च मङ्गलं भाषितं बुधैः । तजिनेन्द्र गुणस्तोत्रं तदविघ्नप्रसिद्धये ॥१॥ आप्तपरीक्षा | थम २ पाँचों विभागोंके नाम यहां क्यों नहीं दिये गये हैं, यह विषय इस ग्रन्थकी भूमिकासे स्पष्ट होगा । ३ शब्दों के वाच्यार्थ तीन प्रकार हैं- रूढिसे, योगसे, योग रूढिसे । जो शब्द अपने अर्थको अपनी व्युत्पत्तिद्वारा न जना सके, वह रूढिसे कहा जाता है । जैसे - ऐलक शब्दका अर्थ ग्यारह प्रतिमाधारी । जो शब्द अपने अर्थको अपनी ही व्युत्पत्तिद्वारा जना सके वह यौगिक कहा जाता है । जैसे- जिन शब्दका अर्थ सम्यग्दृष्टि अथवा अर्हन् । जो शब्द अपने अर्थको व्युत्पत्तिद्वारा भी जना सके और उस अर्थ में नियत भी हो वह योगरूढि कहलाता है । जैसे - तीर्थकर शब्दका अर्थ ( चौवीस ) तीर्थकर | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy