SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ ] पञ्चाध्यायी। [प्रथम अर्थ-यदि शंकाकारके कथनानुसार सत्को एक माना जाय अथवा चित् ही जीव माना जाय और इनको निश्चय नयका उदाहरण कहा जाय तो व्यवहार नयसे निश्चय नयमें कुछ भी भेद नहीं रहेगा, क्योंकि ये दोनों ही उदाहरण व्यवहार नयके ही अन्तर्गत-(गर्भित) हो जाते हैं। सत्को एक कहनेसे भी सतमें भेद ही सिद्ध होता है, अथवा जीवको चित्स्वरूप कहनेसे भी जीवमें भेट ही सिद्ध होता है । किस प्रकार ? सो नीचे कहते हैं एवं सदुदाहरने लल्ला लक्षणं तदेकमिति । लक्षणलक्ष्यविभागा भवति व्यवहारतः स नान्यत्र ॥६१६॥ अथवा निदेवजीदो सदुदायितेप्यभेदबुद्धिमता। उक्तवदशाषितधा व्यवहारनयो न परमार्थः ॥ ६१७॥ अर्थ-शंकाकारने निश्चय नयका उदाहरण यह बतलाया है कि सत् एक है, इसमें आचार्य दोष दिखलाते हैं- सत् एक है, यहां पर सत् तो लक्ष्य ठहरता है और उसका एक यह लक्षण ठहरता है। इस प्रकारका लक्षण लक्ष्यका भेद व्यवहार नयमें ही होता है निश्चय नयमें नहीं होता । जिस प्रकार सत् और एकमें लक्षण लक्ष्यका भेद होता है, उसी प्रकार जीव और चितमें भी होता है। जीव लक्ष्य और चित् उसका लक्षण सिद्ध होता है। शंकाकारने यद्यपि इन उदाहरणोंको अभेद बुद्धिसे बतलाया है, परन्तु विचार करने पर उदाहरण मात्र ही भेदननक पड़ता है। इसलिये यह व्यवहार नयका ही विषय है, निश्चयका नहीं। क्योंकि जितना भी भेद व्यवहार है, सब व्यवहार ही है। एवं मुसिसकार होणे सति सर्वशून्यदोषः स्यात् । निरपेक्षस्यमयाभावात्तल्लक्षणाद्यभावत्वात् ॥६१८॥ अर्थ-इस प्रकार दोनों ही नयोंमें संकरता आती है। संकरता आनेसे सर्वशून्य दोष आता है, जो निरपेक्ष है उसमें नयपना ही नहीं आता, क्योंकि निरपेक्षता नयका लक्षण ही नहीं है। भावा-निश्चय नयको भी सोदाहरण माननेसे व्यवहारसे उसमें कुछ भेद नहीं रहेगा दोनों एक रूपमें आजायंगे ऐसी अवस्थामें प्रमाण भी आत्मलाभ न कर सकेगा इसलिये निश्चय नयको उदाहरण सहित मानना ठीक नहीं है। शङ्काकार-- ननु केवलं सदेव हि यदि वा जीवो विशेषनिरपेक्षः। भवति च तदाहणं भेदाभावात्तदा हि को दोषः॥६१९॥ अपि चैवं प्रतिनियतं व्यवहारस्थावकाश एव यथा। सदनेकं च देकं जीवश्चिद्रव्यमात्मवानिति चेत् ॥ ६२० ॥ अर्थ--यदि सत्को एक कहनेसे और जीवको चित् रूप कहनेसे भी व्यवहार नयका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy