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अध्याय।
सुबोधनी टीका।
[१८५
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ही विषय आजाता है तो निश्चय नयका उदाहरण केवल सत् ही कहना चाहिये, अथवा जीव ही कहना चाहिये । सत्का एकत्व विशेष और जीवका चित् विशेष नहीं कहना चाहिये। सन्मात्र कहनेसे अथवा जीव मात्र कहनेसे फिर कोई दोष नहीं रहता है। सन्मात्र और जीव मात्र कहनेसे भेद बुद्धि भी नहीं रहती है । व्यवहार नयका अवकाश तो भेदमें ही प्रति नियत है जैसे यह कहना कि सत् एक है, सत् अनेक है, जीव चिद्रव्य है, जीव आत्मवान् है, यह भेदज्ञान ही व्यवहार नयका लक्षण है। निश्चय नयमें केवल सत् अथवा जीव ही उदाहरण मान लेने चाहिये ?
उत्तरन यतः सदिति विकल्पो जीवः काल्पनिक इति विकल्पश्च ।
तत्तद्धर्मविशिष्टस्तदानुपचर्यते स यथा ॥ ६२१ ॥
अर्थ-शंकाकारका उपर्युक्त कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत् यह विकल्प और जीव यह विकल्प दोनों ही काल्पनिक हैं । भिन्न २ धर्मोसे विशिष्ट होनेसे उन धर्म वाले उपचारसे कहे जाते हैं, अर्थात् जिस धर्मकी विवक्षा रक्खी जाती है उसी धर्मसे विशिष्ट वस्तु कही जाती है। वह धर्मका उपचार इस प्रकार होता है
जीवः प्राणादिमतः संज्ञा करणं यदेतदेवेति ।
जीवनगुणसापेक्षो जीवः प्राणादिमानिहास्त्यर्थात् ॥ ६२२ ॥
अर्थ-जो प्राणोंको धारण करनेवाला है उसीको जीव इस नामसे कहा जाता है, अथवा जो जीवन गुणकी अपेक्षा रखनेवाला है उसे ही जीव कहते हैं । इसलिये जीव मात्र कहनेसे भी प्राण विशिष्ट और जीवत्वगुण विशिष्टका ही बोध होता है । इसी प्रकार
यदि वा सदिति सत्सतः स्यात्संज्ञा सत्तागुणस्य सापेक्षात् ।
लब्धं तदनुक्तमपि सद्भावात् सदिति वा गुणो द्रव्यम् ॥ ६२३ ॥ __ अर्थ-अथवा सत् यह नाम सत्तागुणकी अपेक्षा रखमेवाले (अस्तित्व गुण विशिष्ट) सत् पदार्थका है । इसलिये सत् इतना कहनेसे ही विना कहे हुए भी अस्तित्व गुण अथवा अस्तित्व गुण विशिष्ट द्रव्यका बोध होता है । भावाथ--यद्यपि सत्में यह विकल्प नहीं उठाया गया है कि वह द्रव्य है, अथवा गुण है तथापि वह विकल्प विना कहे हुए भी सत् कहनेसे ही उठ जाता है, और जितना विकल्पात्मक-भेदविज्ञान है सब व्यवहार नयका विषय है।
यदि च विशेषणशून्यं विशेष्यमानं सुनिश्चयस्वार्थः।
द्रव्यं गुणो न य इति वा व्यवहारलोपदोषः स्यात्॥६२४॥ पू. २४
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