SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ ] पञ्चाध्यायी । [ प्रथम तो सभी पदार्थोंमें अतिव्याप्ति दोष उत्पन्न होगा । धावार्थ-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव, पुद्गल ये छहों द्रव्य एक क्षेत्रमें रहते हैं परन्तु छहों के लक्षण जुदे २ हैं यदि एक क्षेत्रावगाह ही एकताका कारण हो तो छहोंमें अतिव्याप्ति दोष आवेगा, अथवा उनमें अनेकता न रहेगी। अपि भवति बन्ध्यवन्धकभावो यदिवानयोर्न राज्यमिति । तदनेकत्वे नियमात्तबन्धस्य स्वतोप्यसिडत्वात् ॥ ५७० अर्थ - कदाचित् यह कहा जाय कि जीव और शरीरमें परस्पर वन्ध्य बन्धक भाव है इसलिये वैसा व्यवहार होता है, ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये क्योंकि बन्ध नियमसे अनेक पदार्थोंमें होता है । एक पदार्थमें अपने आप ही बन्धका होना असिद्ध ही है। भावार्थः–पुद्गलको बाँधनेवाला आत्मा है, आत्मा से बँधनेवाला पुद्गल है । इसलिये पुद्गल शरीर वन्ध्य है, आत्मा उसका बन्धक है । ऐसा बन्ध्य बन्धक सम्बन्ध होने से शरीरमें जीव व्यवहार किया जाता है ऐसी आशंका भी निर्मुल है, क्योंकि बन्ध तभी हो सक्ता है जब कि दो पदार्थ प्रसिद्ध हों अर्थात् बन्ध्यबंधक भावमें तो द्वैत ही प्रतीत होता है । अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथः । न यतः स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया ॥ ५७१ ॥ अर्थ - कदाचित मनुष्यादि शरीरमें जीवत्व बुद्धिका कारण शरीर और जीवका निमित्त नैमित्तक सम्बन्ध हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सक्ता, कारण जो अपने आप परिणमनशील है उसके लिये निमित्तपने से क्या प्रयोजन ? अर्थात् जीवस्वरूपमें निमित्त कारण कुछ नहीं कर सक्ता । भावार्थ - जीव और शरीर में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध शरीरमें निमि सता और जीवमें नैमित्तिकताका ही सूचक होगा, वह सम्बन्ध दोनोंमें एकत्व बुद्धिका जनक नहीं कहा जा सक्ता, क्योंकि जीव अपने स्वरूपसे ही परिणमन करता है, निमित्त कारणके निमित्त से उसमें पररूपता नहीं आती । इसलिये मनुष्यादि शरीर में जीव व्यवहार करना नयाभास है । दूसरा नयामास --- अपरोपि नयाभासो भवति यथा मूर्तस्य तस्य सतः । कर्त्ता भोक्ता जीवः स्यादपि नोकर्मकर्मकृतेः ॥ ५७२ ॥ अर्थ – आहारवर्गणा, भाषावरीणा, तैजसवर्गणा, मनोवर्गणा ये चार वर्गणायें जब आत्मासे सम्बन्धित होती हैं, तब वे नोकर्मके नामसे कहीं जातीं हैं, और कार्माणवर्गणा जब आत्मा सम्बन्धित होकर कर्मरूप -- ज्ञानावरणादिरूप परिणत होती है तब वह कर्मके नामसे कही जाती है । ये कर्म और नोकर्म पुगलकी पर्यायें हैं, अतएव वे मूर्त हैं । उन मूर्त कर्म नोकर्मका जीव कर्ता तथा भोक्ता है ऐसा कहना दूसरा नयाभास है । भावार्थ - जीव अ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy