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________________ अध्याय।] सुबोधिनी टीका। - - wwwwwwwwwwww w मूर्तस्वरूपवाला है, वह अपने ज्ञानादिभावोंका ही कर्ता भोक्ता हो सक्ता है, उसको ज्ञानादिभावोंका कर्ता भोक्ता कहना भी व्यवहार ही है। परन्तु जो उसे मूर्त पदार्थोका कर्ता भोक्ता व्यवहार नयसे बतलाते हैं उस विषयमें आचार्य कहते हैं कि वह नय नहीं किन्तु नयाभास है। नयाभास यों हैनाभासत्त्वमसिद्ध स्यादपसिद्धान्ततो नयस्यास्य । सदनेकत्वे सति किल गुणसंक्रातिः कुतः प्रमाणादा ॥५७३॥ गुणसंक्रातिमृते यदि कर्ता स्यात्कर्मणश्च भोक्तात्मा। - सर्वस्य सर्वसंकरदोषः स्यात् सर्वशून्यदोषश्च ॥ ५७४ ॥ अर्थ-मूर्तकर्मीका जीवको कर्त्ता भोक्ता बतलानेवाला व्यवहार नय नयाभास है यह बात असिद्ध नहीं है कारण ऐसा व्यवहार नय सिद्धान्तविरुद्ध है । सिद्धान्तविरुद्धताका भी कारण यह है कि जब कर्म और जीव दोनों भिन्न २ पदार्थ हैं तब उनमें गुणसंक्रमण किस प्रमाणसे होगा ? अर्थात् नहीं होगा तथा विना गुणोंके परिवर्तन हुए जीव, कर्मका कर्ता भोक्ता नहीं होसक्ता, यदि विना गुणोंकी संक्रातिके ही जीव कर्मका कर्ता भोक्ता होजाय तो सब पदार्थोंमें सर्वसंकर दोष उत्पन्न होगा । तथा सर्वशून्य दोष भी उत्पन्न होगा। भावार्थ-यदि जीवके गुण पुद्गलमें चले जायं तभी जीव पुद्गलका कर्ता भोक्ता हो सक्ता है । कपड़ा बुननेवालेके कुछ गुण वा सव गुण उस कपड़ेमें आ तभी वह बुननेवाला उस कपडेका कर्ता कहा जासक्ता है । अन्यथा कपड़ेमें उसकी कतृता क्या आई ? कुछ भी नहीं केवल निमित्तता है । यदि विना गुणोंका संक्रमण हुए ही जीवमें पुद्गलका कतृत्व माना जाय तो सभी पदार्थ एक दूसरेके कर्ता होसक्ते हैं । ऐसी अवस्थामें धर्मादि द्रव्योंका भी जीवमें कर्तृत्व सिद्ध होगा। भ्रमका कारणअस्त्यत्र भ्रमहेतुर्जीवस्याशुद्धपरणतिं प्राप्य । कर्मत्वं परिणमते स्वयमपि मूर्तिमद्यतो द्रव्यम् ॥ ५७५ ॥ अर्थ-जीव कर्मोका कर्ता है, इस भ्रमका कारण भी यह है कि जीवकी अशुद्ध परिणतिके निमित्तसे पुद्गलद्रव्य-कार्माण वर्गणा स्वयं (उपादान) कर्मरूप परिणत होजाती है। भावार्थ-जीवके रागद्वेष भावोंके निमित्तसे कार्माण वर्गणा कर्म पर्यायको धारण करती है। इसीलिये उसमें जीवकर्तृताका भ्रम होता है । समाधान-- इदमत्र समाधानं को यः कोपि सः स्वभावस्य । परभावस्य न कर्ता भोक्ता धा तन्निमित्तमात्रेपि ॥५७६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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