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________________ अध्याय।। सुबोधिनी टीका। [ १७१ गुणारोप ही है । वे भाव शुद्धात्माके नहीं हैं किन्तु परके निमित्तसे होते हैं इसलिये उन्हें असद्भूत नयका विषय कहा जाता है। चाहे सद्भूत हो अथवा असद्भूत हो, तद्गुणारोपी ही नय है अन्यथा वह नयाभास है । रूप, रस, गन्धादिक पुद्गलके ही गुण हैं, वे जीवके किसी प्रकार नहीं कहे जासक्ते हैं । रूप रसादिको जीवके भाव कहना, यह अतद्गुणारोप है इसलिये यह नयाभास है। कुछ नयाभासोंका उल्लेखअथ सन्ति नयाभासा यथोपचाराख्यहेतुदृष्टान्ताः । अत्रोच्यन्ते केचिद्धयतया वा नयादिशुद्यर्थम् ॥ ५६६ ॥ अर्थ---उपचार नामवाले (उपचार पूर्वक) हेतु दृष्टान्तोंको ही नयाभास कहते हैं। यहांपर कुछ नयाभासोंका उल्लेख किया जाता है । वह इसलिये कि उन नयाभासोंको समझकर उन्हें छोड़ दिया जाय अथवा उन नयाभासोंके देखनेसे शुद्ध नयोंका परिज्ञान होजाय । लोक व्यवहारअस्ति व्यवहारः किल लोकानामयमलब्धयुडित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति सजीवस्ततोप्यनन्यत्वात् ॥५६७॥ अर्थ---बुद्धिका अभाव होनेसे लोकोंका यह व्यवहार होता है कि जो यह मनुष्यादिका शरीर है वह जीव है क्योंकि वह जीवसे अभिन्न है। यह व्यवहार मिथ्या है। सोऽयं व्यवहारः स्यादव्यवहारो यथापसिद्धान्तात् । अप्यपसिद्धान्तत्वं नासिद्धं स्यादनेकधर्मित्वात् ॥५६८॥ अर्थ-शरीरमें जीवका व्यवहार जो लोकमें होता है वह व्यवहार अयोग्य व्यवहार है, अथवा व्यवहारके अयोग्य व्यवहार है । कारण वह सिद्धान्त विरुद्ध है। सिद्धान्त विरुद्धता इस व्यवहारमें असिद्ध नहीं है, किन्तु शरीर और जीवको भिन्न २ धर्मी होनेसे प्रसिद्ध ही है । भावार्थ-शरीर पुद्गल द्रव्य भिन्न पदार्थ है और जीव द्रव्य भिन्न पदार्थ है, फिर भी जो लोग शरीरमें जीव व्यवहार करते हैं वे अवश्य सिद्धान्त विरुद्ध कहते हैं। नाशयं कारणमिदमेकक्षेत्रावगाहिमात्रं यत् । सर्वद्रव्येषु यतस्तथावगाहाद्भवेदतिव्याप्तिः ॥५६९॥ ___ अर्थ-शरीर और जीव दोनोंका एक क्षेत्रमें अवगाहन (स्थिति) है इसी कारण लोकमें वैसा व्यवहार होता है ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि एक क्षेत्रमें तो सम्पूर्ण द्रव्योंका अवगाहन होरहा है, यदि एक क्षेत्रमें अवगाहन होना ही एकताका कारण हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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