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पञ्चाध्यायी ।
असद्भूत व्यवहारनय प्रवृत्त होता है, अर्थात् किसी वस्तुके गुणका अन्यरूप परिणत न होना ही इस नयकी प्रवृत्तिका हेतु है ।
इस नयका फल
फलमागन्तुकभावाः स्वपरनिमित्ता भवन्तियावन्तः । क्षणिकत्वान्नादेया इति बुद्धिः स्यादनात्मधर्मत्वात् । ५४८ । अर्थ — अपने और परके निमित्तसे होनेवाले जितने भी आगन्तुक भाव -- वैभाविकभाव हैं । वे सब आत्माके धर्म नहीं हैं । इसलिये वे क्षणिक हैं । क्षणिक होनेसे अथवा आत्मिक धर्म न होनेसे वे ग्राह्य - - ग्रहण करने योग्य नहीं हैं ऐसी बुद्धिका होना ही इस नयका फल है । भावार्थ – अनुपचरित - असद्भूत व्यवहार नय वैभाविक भावमें 1 प्रवृत्त होता है । उसका फल यह निकलता है कि ये भाव परके निमित्तसे होते हैं इसलिये अग्राह्य हैं।
"उपचरित - असद्भूत व्यवहार नय
८८ उपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराख्यो नयः स भवति यथा । क्रोधाद्याः औदयिकाश्चितश्चेद्बुद्धिजा विवक्ष्याः स्युः ॥ ५४९ ॥ अर्थ — औदयिक क्रोधादिक भाव यदि बुद्धिपूर्वक हों, फिर उन्हें जीवके समझना या कहना उपचरित-असद्भूत व्यवहार नय है । भावार्थ -- बुद्धिपूर्वक क्रोधादि भाव उन्हें कहते हैं कि जिनके विषयमें यह ज्ञात हो कि ये क्रोधादि भाव हैं । जैसे कोई पुरुष क्रोध करता है अथवा लोभ करता है और जानता भी है कि वह क्रोध कर रहा है अथवा लोभ कर रहा है, फिर भी वह अपने उस क्रोध भावको अथवा लोभभावको अपना निजका समझे या कहे तो उसका वह समझना या कहना उपचरित - असद्भूत व्यवहार नयका विषय है अथवा वह नय है । क्रोधादिक भाव केवल जीवके नहीं हैं। उन्हें जीवके कहना इतना अंश तो असद्भूतका है जो कि पहले ही कहा जा चुका है । क्रोधादिकोंको क्रोधादि समझ करके भी उन्हें जीवके बतलाना इतना अंश उपचरित है । बुद्धिपूर्वक क्रोधादिक भाव छठे गुणस्थान तक होते हैं । उससे ऊपर नहीं ।
इसका कारण -
बीजं विभावभावाः स्वपरो भयहेतवस्तथा नियमात् ।
सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवन्ति यतः ॥ ५५० ॥ अर्थ - जितने भी वैभाविक भाव हैं वे नियमसे अपने और परके निमित्तसे
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होते हैं । यद्यपि वे शक्ति विशेष हैं अर्थात् किसी द्रव्यके निज गुण हैं तथापि वे परके निमित्त विना नहीं होते हैं । भावार्थ - - आत्माके गुणोंका पुद्गल कर्मके निमित्तसे वैभाविक
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