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________________ सुबोधिनी टीका। १६५ ज्ञानका साधक है अर्थात् घटज्ञान, पटज्ञान पुस्तकज्ञान, रत्नज्ञान इत्यादि ज्ञानके विशेषण साधक हैं। सामान्यज्ञान साध्य है। उपर्युक्त विशेषणोंसे सामान्यज्ञानकी ही सिद्धि होती है। ज्ञानमें घटादि धर्मता सिद्ध नहीं होती। ऐसा यथार्थ परिज्ञान होनेसे ज्ञेय ज्ञायकमें संकरताका बोध कभी नहीं हो सकता है। अनुपचरित-असद्भूत व्यवहार नयका दृष्टान्त--- अपि वाऽसतो योऽनुपचरिताख्यो नयः स भवति यथा। क्रोधाद्या जीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवाः॥५४६॥ अर्थ-अबुद्धि पूर्वक होनेवाले क्रोधादिक भावोंमें जीवके मावोंकी विवक्षा करना, यह अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय कहलाता है । भावार्थ-दूसरे द्रव्यके गुण दूसरे द्रव्यमें विवक्षित किये जागृ इसीको अतद्भुत व्यवहार नय कहते हैं। क्रोधादिक भावकर्मोंके सम्ब" न्धसे होते हैं इसलिये वे जीवके नहीं कहे जासक्तेयह बात असद्भूत व्यवहार नयके दृष्टान्तमें स्पष्ट कर दी गई है। उन्हीं भावोंको जीवके भाव कहना या जानना असद्भत नय है । परन्तु क्रोधादिक भाव दो प्रकारके होते हैं (१) बुद्धि पूर्वक (२) अबुद्धि पूर्वक । बुद्धि पूर्वक भाव उन्हें कहते हैं जोभावस्थूलतासे उदयमें आ रहे हों तथा जिनके बिषयमें हम बोधभी कर रहे हों कि वे क्रोधादिक भाव हैं। ऐसा समझ कर भी कि ये क्रोधादिक हैं, फिर भी उन्हें जीवके बतलानाया जानना उपचरित नय है, परन्तु जहां पर क्रोधादिकभाव सूक्ष्मतासे उदयमें आरहे हैं, जिनके विषयमें यह निर्णय नहीं कियाजासक्ता कि क्रोधादि भाव हैं या नहीं ऐसे भावोंको अबुद्धि पूर्वक क्रोधादि भावोंको जीवके विवक्षित करना अनुपचरित-असद्भूत व्यवहारनय है । यहांपर वैभाविक भावोंको ( परभावोंको ) जीवका कहना इतना अंश तो असद्भूतका है । गुण गुणीका विकल्प व्यवहार अंश है । अबुद्धिपूर्वक क्रोधादिकोंको कहना इतना अंश अनुपचरितका है । _इसका कारण कारणमिह यस्य सतो या शक्तिः स्यादिभावभावमयी। उपयोगदशाविष्टा सा शक्तिः स्यात्तदाप्यनन्यमयी । ५४७ । अर्थ-जिस पदार्थकी जो शक्ति वैभाविक मावमय हो रही है और उपयोगदशा ( कार्यकारिणी) विशिष्ट है । तो भी वह शक्ति अन्यकी नहीं कही जा सक्ती । यही अनुपचरित असद्भुत व्यवहारनयकी प्रवृत्तिमें कारण है । भावार्थ-यदि एक शक्ति दूसरी शक्ति रूप परिणत हो जाय तब तो एकपदार्थके गुण दूसरे पदार्थमें चले जानेसे संकर और अभाव दोष उत्पन्न होते हैं, तथा ऐसा ज्ञान और कथन भी मिथ्यानय है । जीवके क्रोधादिक भाव उसके चारित्र गुणके ही परनिमित्तसे होनेवाले विकार हैं। चारित्र गुण कितना ही विकारमय अवस्थामें क्यों न परिणत हो जाय परन्तु वह सदा जीवका ही रहेगा। इसी लिये वहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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