SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुबोधिनी टीका। १६७ - - - - - AAVvvvvmurvive RAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAApanAAAAAAAAMuvvvvvvvvvv रूप होना ही उपचरित असद्भत व्यवहार नयका कारण है। इस नयका फल । तत्फलमविनाभावात्साध्यं तदबुद्धिपूर्वका भावाः । तत्सत्तामात्रं प्रति साधनमिह बुद्धिपूर्वका भावाः ॥५५१॥ अर्थ-विना अबुद्धिपूर्वक भावोंके बुद्धिप्रंबक भाव हो ही नहीं सक्ते हैं। इसलिये बुद्धिपूर्वक भावोंका अबुद्धिपूर्वक भावोंके साथ अविनाभाव है। अविनाभाव होनेसे अबुद्धिपूर्वक भाव साध्य हैं और उनकी सत्ता सिद्ध करनेके लिये साधन बुद्धिपूर्वक भाव हैं। यही इसका फल है । भावार्थ-बुद्धिपूर्वक भावोंसे अबुद्धिपूर्वक भावोंका परिज्ञान करना ही अनुपचरित-असद्भुत व्यवहार नयका फल है। शंङ्काकार-- ननु चासद्भूतादिर्भवति स यत्रेत्यतद्गुणारोपः । दृष्टान्तादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहास्त्वितिचेत् ॥५५२॥ अर्थ--असद्भूत व्यबहार नय वहांपर प्रवृत्त होता है जहां कि एक वस्तुके गुण दूसरी वस्तुमें आरोपित किये जाते हैं । दृष्टान्त--जैसे जीवको वर्णादिवाला कहना । ऐसा मानने में क्या हानि है ? भावार्थ---ग्रन्थकारने ऊपर अनुपचरित और उपचरित दोनों प्रकारका ही असद्भूत व्यवहार नय तद्गुणारोपी बतलाया है, अर्थात् उसी वस्तुके गुण उसीमें आरोपित करनेकी विवक्षाको असद्भुत नय कहा है। क्योंकि क्रोधादिक भावभी तो जीवके ही हैं और वे जीवमें ही बिवक्षित किये गये हैं। शङ्काकारका कहना है कि सद्भूत नयको तो तद्गुणारोपी कहना चाहिये और असद्भूत नयको अतद्गुणारोपी कहना चाहिये। इस विषयमें वह दृष्टान्त देता है कि जैसे वर्णादि पुद्गलके गुण हैं उनको जीवके कहना यही असद्भूत नयका विषय है ? उत्तर-- तन्न यतो न नयास्ते किन्तु नयाभाससंज्ञकाः सन्ति । स्वयमप्यतद्गुणत्वाव्यवहाराऽविशेषतो न्यायात् ॥ ५५३ ॥ अर्थ-शंकाकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है । कारण जो तद्गुणारोपी नहीं हैं किन्तु एक वस्तुके गुण दूसरी वस्तुमें आरोपित करते हैं वे नय नहीं है किन्तु नयाभास हैं। वे व्यवहारके योग्य नहीं हैं । भावार्थ-मिथ्यानयको नयाभास कहते हैं । जो नय अतद्गुणारोपी है वह नयाभास है। तथा-- तदभिज्ञानं चैतद्येऽतद्गुणलक्षणा नयाः प्रोक्ताः । तन्मिथ्यावादत्वाद्ध्वस्तास्तद्वादिनोपि मिथ्याख्याः॥ ५५४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy