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पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
अर्थ-अथवा ज्ञान विकल्पका नाम ही नय है । अर्थात् विकल्पात्मक ज्ञानको नय कहते हैं और जितना विकल्प है वह सब अपरमार्थ-अयथार्थ है क्योंकि शुद्ध ज्ञान गुण नय नहीं कहा जाता है, और न शुद्ध ज्ञेय ही नय कहा जता है। किंतु ज्ञान और शेय, इन दोनोंके योग-सम्बन्धसे ही नय कहा जाता है । इसीलिये वह अयथार्थ है।
स्पष्ट विवेचनज्ञानविकल्पो नय इति तत्रेयं प्रक्रियापि संयोज्या। ज्ञानं ज्ञानं न नयो नयोपि न ज्ञानमिह विकल्पत्वात् ॥५०७॥
अर्थ-ज्ञान विकल्प नय है इस विषयमें यह प्रक्रिया (शैली) लगानी चाहिये कि ज्ञान तो ज्ञानरूप ही है, ज्ञान नयरूप नहीं है । जो नय है वह ज्ञानरूप नहीं है, क्योंकि नय विकल्प स्वरूप है। भावार्थ-शुद्ध ज्ञान नयरूप नहीं है। किंतु विकल्पात्मक ज्ञान नय है।
उन्मजति नयपक्षो भवति विकल्पो विवक्षितो हि यदा।
न विवक्षितो विकल्पः स्वयं निमज्जति तदा हि नयपक्षः॥५०॥
अर्थ-जिस समय विकल्प विवक्षित होता है उस समय नय पक्ष भी प्रकट होता है। जिस समय विकल्प विवक्षित नहीं होता है, उस समय नय पक्ष भी स्वयं छिप जाता है । अर्थात् - जहां पदार्थ किसी अपेक्षा विशेषसे विवक्षित होता है वहींपर नय पक्ष स्वकार्यदक्ष होता है।
दृष्टान्तसंदृष्टिः स्पष्टेयं स्यादुपचाराद्यथा घटज्ञानम् ।
ज्ञानं ज्ञानं न घटो घटोपि न ज्ञानमस्ति स इनि घटः ॥५०९॥
अर्थ--यह दृष्टान्त स्पष्ट ही है कि जैसे उपचारसे घटको विषय करनेवाले ज्ञानको घटज्ञान कहा जाता है । वास्तवमें ज्ञान घट रूप नहीं होजाता, और न घट ही ज्ञान रूप होजाता है । ज्ञान ज्ञान ही रहता है तथा घट घट ही रहता है । भावार्थ-ज्ञानका स्वभाव जानना है । हरएक वस्तु उसका ज्ञेय पड़ती है। फिर घटको विषय करनेवाले ज्ञानको घट ज्ञान क्यों कह दिया जाता है, ? उत्तर-उपचारसे । उपचारका कारण भी विकल्प है । यद्यपि घटसे ज्ञान सर्वथा भिन्न है, तथापि ज्ञानमें घट, यह विकल्प अवश्य पड़ा है। इसीसे उस ज्ञानको घटज्ञान कह दिया जाता है ।
तात्पर्यइदमत्र तु तात्पर्य हेयः सर्वो नयो विकल्पात्मा। बलवानिव दुर्वारः प्रवर्त्तते किल तथापि बलात् ॥ ५१० ॥ अर्थ-नयके विषयमें यही तात्पर्य है कि जितना भी विकल्पात्मक नय है सभी
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