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________________ अध्याय ।। सुबोधिनी टीका। १५३ त्याज्य छोडने योग्य) है। यहांपर शंका होसक्ती है कि जब विकल्पात्मक नय सभी छोड़ने योग्य है फिर क्यों कहा जाता है ? उत्तर-यद्यपि यह बात ठीक है तथापि उसका कहना आवश्यक प्रतीत होता है । इसलिये वह बलवान्के समान बलपूर्वक प्रवर्तित होता ही है अर्थात् उसका प्रयोग करना ही पड़ता है । वह यद्यपि त्याज्य है तथापि वह दुर्वार है । भावार्थ:-विकल्पात्मक-नय सम्पूर्ण पदार्थके स्वरूपको नहीं कह सकता है । इसका कारण भी यह है कि वह पदार्थको अशंरू पसे ग्रहण करता है। इस लिये उपादेय नहीं है। तथापि उसके विना कहे हुए भी पदार्थव्यवस्था नहीं जानी जासकती है, इसलिये उसका कहना भी आवश्यक ही है। नयमात्र विकल्पात्मक हैअथ तद्यथा यथा सत्सन्मानं मन्यमान इह कश्चित् ।। न विकल्पमतिकामति सदिति विकल्पस्य दुर्निवारत्वात् ।।११। अर्थः-जितना भी नय है सब विकल्पात्मक है इसी बातको यहां पर स्पष्ट करते हैं । जैसे किसी पुरुषने सतमें कोई विकल्प नहीं समझा हो केवल उसे उसने सन्मात्र सत्स्वरूप ही समझा हो तो यहां पर भी विकल्पातीत उसका ज्ञान नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि 'सत्' यह विकल्प उसके ज्ञानमें आचुका ही है, वह दुर्निवार है, अर्थात् सत् इस विकल्पको तो कोई उसके ज्ञानसे दूर नहीं कर सकता। भावार्थ:-सम्पूर्ण विकल्पजाल भेद ज्ञानोंको छोड़कर केवल जिसने पदार्थको सन्मात्र ही समझा है उसका ज्ञान भी विकल्पात्मक ही है क्योंकि उसके ज्ञानमें सत, यह विकल्प आचुका । सत् भी तो पदार्थका एक अंश ही है। स्थूलं वा सूक्ष्म वा बाह्यानर्जल्पमात्रवर्णनयम् । ज्ञानं तन्मयमिति वा नयकल्पो वाग्विलासत्वात् ।।५१२॥ अर्थ-स्थूल अथवा सूक्ष्म जो वाह्यजल्प (स्पष्टबोलना और अन्तर्नल्प (मन ही मनमें वोलना) है वह सब वर्णमय है और वह नयरूप है, क्योंकि वह वचन विन्यासरूप है । जितना भी वचनात्मक कथन है सब नयात्मक है तथा उन वचनोंका जो बोध है ज्ञान है वह भी नयरूप ही है । क्योंकि वचनोंके समान उसने भी वस्तुके विवक्षित अशको ही विषय किया है । भावार्थ:-वाचक तथा वाच्य बोध दोनों ही नयात्मक हैं । अथवा.... अवलोक्य वस्तुधर्म प्रतिनियतं प्रतिविशिष्टमेकैकम् । संज्ञाकरणं यदि वा तहागुपचर्यते च नयः॥५१३ ॥ पु. १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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