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________________ पञ्चाध्यायी । रज्जू युग्म भी दृष्टान्ताभास है वामेतर करवर्त्तिरज्ज्युग्मं न चेह दृष्टान्तः । वाघितविषयत्वाद्वा दोषात्कालात्ययापदिष्टत्वात् ॥ ४०५ ॥ तद्वाक्यमुपादानकारणसदृशं हि कार्यमेकत्वात् । अस्त्यनतिगोरसत्वं दधिदुग्धावस्थयोर्यथाध्यक्षात् ॥ ४०६ ॥ अर्थ - छाछको विलोते समय दाँये बाँये हाथमें रहनेवाली रस्सियोंका दृष्टान्त भी ठीक नहीं है । क्योंकि इस दृष्टान्त द्वारा दोनोंको विमुख रहकर कार्यकारी बतलाया गया 1 है I परन्तु परस्परकी विमुखतामें कार्यकी सिद्धि नहीं होती, उलटी हानि होती है, इसलिये इस दृष्टान्तमें प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधा आती है। अतः यह दृष्टान्त कालात्ययापदिष्ट दोष विशिष्ट है अर्थात् बाधित है । क्यों बाधित है ? इसका विवेचन इस प्रकार है - जहांपर एक कार्य होता 1 है वहां पर उपादान कारणके समान ही कार्य होता है । ऐसा प्रत्यक्षसे भी देखा जाता है जैसे कि गौके दूध में गोरसपना है वैसे उसके दहीमें भी गोरसपना अवश्य है । भावार्थदाँये बाँये हाथमें रहनेवालीं रस्सियां परस्पर एक दूसरेसे विमुख रहकर एक कार्य - छाछविलोनारूप कार्य करती हैं, ऐसा दृष्टान्त ही प्रत्यक्ष बाधित है, क्योंकि छाछ विलोते समय एक हाथकी रस्सीको संकोचना और दूसरे हाथकी रस्सीको फैलाना यह एक ही कार्य है, दो नहीं । उनका समय भी एक है । जिस समय दाँया हाथ फैलता है । उसी समय बाँया संकुचित होता है । तथा दोनों हाथोंकी रस्सियां परस्पर विरुद्ध भी नहीं है, जिस समय दाँया हाथ फैलता है उस समय बाँया संकुचित नहीं होता किन्तु उसकी सहायता करनेके लिये उधरको ही बढ़ता है, यदि वह उधर बढ़कर सहायक न होता हो तो दाँया हाथ फैल ही नहीं सक्ता, इसलिये परस्पर विरुद्ध नहीं किन्तु अनुकूल ही दोनों हाथोंकी रस्सियां हैं । सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिन्हें दो रस्सियोंके नामसे पुकारा जाता है वे दो नहीं किन्तु एक ही है। एक ही रस्सी कभी दाँयेकी ओर कभी बाँये हाथकी ओर जाती है, इसलिये दो रस्सियोंका दृष्टान्त सर्वथा बाधित है । अथवा इसका दूसरा आशय इस प्रकार है कि यदि शंकाकार यह अनुमान बनावे कि 'सत्परिणाम विसन्धिरूपौ कार्यकारित्वात् बामेवर... करवर्त्तित रज्जू खुम्मवत्, अर्थात् सत्परिणाम परस्पर विमुख बनकर कार्य करते हैं । जैसे बाँये दाँ हाथकी दो रस्सियां तो उसका यह अनुमान प्रत्यक्ष वाधित है । क्योंकि सत्परिणाम परस्पर सापेक्ष तादात्म्यस्वरूप हैं। जहां एक पदार्थमें कार्यकारित्व होता है वहां कारणके सदृश ही होता है जहां पर अनेक पदार्थों में कार्यकारित्व होता है वहांपर ही विमुखताकी संभावना रहती है । नु १२० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only [ प्रथम www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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