________________
अध्याय ।
सुबोधिनी टीका। लिये पांचवेकी, इस प्रकार उत्तरोत्तर सहायकोंकी योजना अवश्य ही अनिवार्य (प्राप्त) होगी* यदि यह कहा जाय कि एक कार्यके लिये दो कारणोंकी ही आवश्यकता होती है (१) उपादान कारण (२) निमित्त कारण अथवा एक कार्यमें दो ही सहायकमित्र आवश्यक होते हैं । उनसे अतिरिक्त कारणोंकी आवश्यकता ही नहीं होती तो यह कहना भी अयुक्त है, क्योंकि एक कार्यमें दो ही कारण होते हैं उनसे अधिक होते ही नहीं, इस नियमका विधायक कोई प्रमाण नहीं है। इसलिये सत् परिणामके विषयमें मित्रद्वयका दृष्टान्त भी कुछ कार्यकारी नहीं है।
शत्रुद्वैत भी दृष्टान्ताभास हैएवं मिथो विपक्षद्वैतवदित्यपि न साधुदृष्टान्तः। अनवस्थादोषत्वाद्यथाऽरिरस्यापरारिरपि यस्मात् ॥४०३॥ कार्यम्प्रति नियतत्वाच्छत्रुद्वैते न ततोऽतिरिक्तं चेत् ।
तन्न यतस्तन्नियमग्राहकमिव न प्रमाणमिह ॥४०४॥
अर्थ-जिस प्रकार मित्र द्वैतका दृष्टान्त ठीक नहीं है, उसी प्रकार शत्रु द्वैतका दृष्टान्त भी ठीक नहीं है । क्योंकि जिस प्रकार मित्र द्वैतके दृष्टान्तमें अनवस्था दोष आता है, उसी प्रकार शत्रुद्वैतके दृष्टान्तमें भी अनवस्था दोष आता है। जैसे एक पुरुषका दूसरा शत्रु है, वैसे दूसरेका तीसरा और तीसरेका चौथा शत्रु भी होगा। इस शत्रुमालाका भी कहीं अन्त नहीं दीखता है। यदि कहा जाय कि एक कार्यके प्रति दो शत्रु ही नियत हैं, दोसे अधिक नहीं होते हैं तो यह कहना भी अयुक्त है, क्योंकि एक कार्यमें दो ही शत्रु होते हैं, उन शत्रुओंके शत्रु नहीं होते ऐसा नियम करनेमें कोई प्रमाण नहीं है। इसलिये दो शत्रुओंका दृष्टान्त भी सत् परिणामके विषयमें विरुद्ध ही है। भावार्थसत् परिणाम दो शत्रुओंके समान परस्पर विरुद्धरूपसे नहीं रहते हैं किन्तु परस्पर सापेक्ष रूपसे ही रहते हैं। परस्पर सापेक्ष रहते हुए भी दो मित्रोंके समान एक मुख्य साधक दूसरा सहायक साधक भी उनमें नहीं है किन्तु दोनों मिलकर ही समानरूपसे स्वकार्य साधक एक पदार्थ सिद्धिसाधक हैं। इसलिये इनके विषयमें शत्रुमित्र दोनोंके दृष्टान्त ही विरुद्ध हैं।
* अप्रामाणिक अनन्त पदार्थोकी कल्पनाके अन्त न होनेका नाम हो अनवस्था है। यह दोष है।
__ + उपादान-प्रेरक-उदासीन आदि कारण एक कार्य में आवश्यक होते हैं। संभव है एक कार्यमें अनेक मित्रोंकी सहायता भावश्यक हो ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org