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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
सुन्दापसुन्द भी दृष्टान्तभास है । सुन्दोपसुन्दमलद्वैतं दृष्टान्ततः प्रतिज्ञातम् । तदसदसत्वापत्तेरितरेतरनियतदोषत्वात् ॥ ४७ ॥ सत्युपसुन्दे सुन्दो भवति च सुन्दे फिलोपसुन्दोपि । एकस्यापि न सिद्धिः क्रियाफलं वा तदात्ममुखदोषात् ॥ ४०८ ॥
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अर्थ-- सुन्द और उपसुन्द इन दो मल्लोंका जो दृष्टान्त दिया गया है वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस दृष्टान्त से अन्योन्याश्रय दोषके साथ ही पदार्थके अभावका प्रसंग आता है । जैसे- जब उपसुन्द है तब उसका प्रतिपक्षी सुन्द सिद्ध होता है, और जब सुन्द है तब उसका प्रतिपक्षी उपसुन्द सिद्ध होता है । ये दोनों ही एक दूसरेके आश्रित सिद्ध होते हैं इसीका नाम अन्योन्याश्रय दोष है । * अन्तमें दोनोंमेंसे एककी भी सिद्धि नहीं हो पाती अर्थात् दोनों ही मर जाते हैं । इसलिये उनसे कुछ भी कार्य सिद्ध नहीं हो पाता । यह दोष शृङ्काकारने अपने मुख से ही कह डाला है । भावार्थ:-सुन्द, उपसुन्द मल्लोंके समान सत् परिणामको यदि माना जाय तो उनकी असिद्धि और उनका अभाव सिद्ध होगा ।
यदि उन्हें अनादि सिद्ध माना जाय तो-
अथ वेदनादिसिद्धं कृतकत्वापन्हवात्तदेवेह |
तदपि न तद्द्वैतं किल त्यक्तदोषास्पदं यत्रैतत् ॥ ४०९ ॥
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अर्थ --- यदि यह कहा जाय कि सत् परिणाम दोनों अनादि सिद्ध हैं । वे किसीके किये हुए नहीं है । उनमें सदा ये वे ही हैं ऐसी नित्यताकी प्रतीति भी होती रहती है तो ऐसा कहना भी निर्दोष सिद्ध नहीं होता है कारण कि इस प्रकारकी नित्यतामें परिणाम नहीं बन सक्ता है । परिणामकी सिद्धि वहीं पर होसक्ती है जहां पर कि कथञ्चित् अनिहै । सर्वथा नित्यमें परिणाम नहीं बन सक्ता है । इसलिये उपर्युक्त रीतिके अनुसार मानने पर भी सत् परिणामके द्वैतमें निर्दोषता नहीं सिद्ध होती है । भावार्थ - अनादि सिद्ध मानने से शंकाकारने सत् परिणामसे अन्योन्याश्रय दोषको हटाना चाहा था, परन्तु उसकी ऐसी अनादि सिद्धता में द्वैतभाव ही हट जाता है। इसलिये कथंचित् (पर्यायकी अपेक्षासे ) अनित्यताको लिये हुए ही पदार्थ अनादि सिद्ध है ।
त्यता
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* जहां पर दो पदार्थो में एकको सद्ध दूसरे पर अवलम्बत रहती है हां पर अन्यान्या. श्रय दोष आता है । जैसे वैदिक ईश्वर के पास उपकरण - वामग्री हो तो वह सृष्टि रचे, और जब वह सृष्टि रचे तब उसके पास उपकरण - सामग्री हो। इन दोनोंमें एक दूसरे के आधीन होनेसे एक भी सिद्ध नहीं होता है ।
पू० १६
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