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________________ - - भध्याय ।] सुबोधिनी टीका। [ १११ स्पष्टीकरणन यतः पृथगिति किश्चित् सत्परिणामातिरिक्तमिह वस्तु । दीपप्रकाशयोरिह गुम्फितमिव तव्योरैक्यात् ॥ ३७५॥ अर्थ-गौके सीगोंका दृष्टान्त इसलिये ठीक नहीं है कि उसमें सीगोंका आश्रय गौ पदार्थ जुदा पड़ता है, परन्तु सत् परिणामसे अतिरिक्त वस्तु पड़ती ही नहीं है । क्योंकि सत् परिणाम स्वरूप ही पदार्थ है, उस उभयात्मक भावसे अतिरिक्त वस्तु कोई जुदा पदार्थ नहीं है । उन दोनोंका ऐक्यभाव ही वस्तु है, वह दीप और प्रकाशके समान है । दीपसे प्रकाश भिन्न नहीं है और प्रकाशसे दीप भिन्न नहीं है। - कच्ची पक' पृथ्वी भी दृष्टान्ताभास हैआमानामविशिष्टं पृथिवीत्वं नेह भवति दृष्टान्तः। क्रमवर्तित्वादुभयोः स्वेतरपक्षदयस्य घातित्वात् ॥ ३७६ ॥ परपक्षवधस्तावत् क्रमवर्तित्वाच्च स्वतः प्रतिज्ञायाः। असमर्थसाधनस्वात् स्वयमपि वा बाधकः स्वपक्षस्य ॥ ३७७॥ तत्साध्यमनित्यं वा यदि वा नित्यं निसर्गतो वस्तु । स्यादिह पृथिवीत्वतया नित्यमनित्यं ह्यपकपकतया ॥३७८॥ अर्थ-कच्ची पक्की पृथ्वी भी सत् परिणामके विषयमें दृष्टान्त नहीं हो सक्ती है, क्योंकि कच्ची पृथ्वी (कच्चा घड़ा) पहले होती है पक्की पृथ्वी (पक्का घड़ा) पीछे होती है, दोनों क्रमसे होते हैं, इसलिये यह दृष्टान्त उभयपक्ष (जैन सिद्धान्त और शंङ्काकार)का घातक है । अर्थात् इस दृष्टान्तसे दोनों ओरकी सिद्धि नहीं होती । जैन सिद्धान्तकी तो यों नहीं होती कि वह कच्चे पक्के घड़ेके समान सत् परिणामको आगे पीछे नहीं मानता है और इस दृष्टान्तसे तुम क्रमवर्तित्व, सिद्ध करनेकी प्रतिज्ञा ही कर चुके हो । परन्तु तुम्हारा यह हेतु कि क्रमसे सत् परिणाम होते हैं, असमर्थ है, क्योंकि सत् परिणामको छोड़कर नहीं रह सका है और परिणाम सत्को छोड़कर नहीं रह सकता है । तथा इस दृष्टान्तसे शंकाकारका पक्षभी सिद्ध नहीं होता। शंकाकार एक समयमें वस्तुको स्वभावसे नित्य ही सिद्ध करता है अथवा अनित्य ही सिद्ध करता है, परन्तु एक समयमें एक सिद्ध करना बाधित है, क्योंकि दोनों धर्म एक समयमें वस्तुमें सिद्ध होते हैं, जिस समय एथिवीत्व धर्मकी अपेक्षासे एथिवीमें नित्यता सिद्ध है उसी समय पक्क अपक्वरूपकी अपेक्षासे उसमें अनित्यता भी सिद्ध हैं। दोनों ही धर्म परस्पर सापेक्ष हैं, इसलिये दोनों एक साथ ही रह सक्ते हैं अन्यथा एककी भी सिद्धि नहीं हो सकती। ___ सपत्नीयुग्म भी दृष्टान्ताभास हैअपि च सपत्नीयुग्मं स्यादिति हास्यास्पदोपमा दृष्टिः। इह पदसिद्धविरुद्धानकान्तिकदोषदुष्टत्वात् ॥ ३७९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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