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________________ पश्चाध्यायी। [ प्रथम माता मे वन्ध्या स्यादित्यादिवदपि विरुद्धवाक्यत्वात् । कृतकत्वादिति हेतोःक्षणिकैकान्तात्कृतं कृतं विचारतया। ३८० अर्थ-दो सपत्नियों ( सौतों ) का दृष्टान्त तो हास्य पैदा करता है, यह दृष्टान्त तो सभी दोषोंसे दूषित है, इस दृष्टान्तसे असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक आदि सभी दोष आते हैं । जिस प्रकार किसीका यह कहना कि मेरी माता बाझ है, सर्वथा विरुद्ध है, उसी प्रकार सत् परिणामको दो सपत्नियों के समान क्रमसे उत्पन्न मानकर एक कालमें परस्पर विरुद्ध रीतिसे उनकी सत्ताका कथन करना भी विरुद्ध है। क्योंकि सत् परिणाम न तो किसी काल विशेषमें क्रमसे उत्पन्न ही होते हैं, और न वे एक स्थानमें विरुद्ध रीतिसे ही रहते हैं, किन्तु अनादि अनन्त उनका परस्पर सापेक्ष प्रवाह युगपत चला जाता है। इसलिये सपत्नीयुग्मका दृष्टान्त विरुद्ध ही है । तथा जिस प्रकार कृतकत्वहेतुसे घट शरावेके समान पदार्थोंमें भिन्नता सिद्ध करना अनेकांतिक है क्योंकि पट और तन्तुओंमें कृतक होनेपर भी अभिन्नता पाई जाती है। इसलिये कृतकत्व हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास दोषसे दूषित है। इसी प्रकार सत् परिणामके विषयमें दो सपत्नियोंका दृष्टान्त भी अनैकान्तिक दोषसे दूषित है। क्योंकि दो सपत्नियां कहीं पर परस्पर विरुद्ध होकर रहती हैं और कहीं पर परस्पर एकदूसरेकी सहायता चाहती हुई प्रेमपूर्वक अविरुद्ध भी रहती हैं यह नियम नहीं है कि दो सौतें परस्पर विरुद्ध रीतिसे ही रहें । इसलिये यह दृष्टान्त अनैकान्तिक दोषसे दूषित है । अथवा सपत्नी युग्ममें विरोधिता पाई जाती है कहींनहीं भी पाई जाती है इसलिये अनैकान्तिक है तथा जिस प्रकारबौद्धका यह सिद्धान्त कि सब पदार्थ अनित्य हैं क्योंकि वे सर्वथा क्षणिक हैं, सर्वथा असिद्ध हैं* असिद्धताका हेतु भी यही है कि जो क्षणिकैकान्त हेतु दिया जाता है वह सिद्ध नहीं होता, क्योंकि पदार्थोंमें नित्यता भी प्रतीत होती है, यदि नित्यता पदार्थोंमें न हो तो यह वही पुरुष है जिसे दो वर्ष पहले देखा था, ऐसा प्रत्यभिज्ञान नहीं होना चाहिये परन्तु ऐसा यथार्थ प्रत्यभिज्ञान होता है, तथा यदि नित्यता पदार्थों में न मानी जाय तो स्मरण पूर्वक जो लोकमें लैन दैनका व्यवहार होता है वह भी न हो सकै, परन्तु वह भी यथार्थ होता है इत्यादि अनेक हेतुओंसे सर्वथा क्षणिकता पदार्थों में सिद्ध नहीं होती उसी प्रकार दो सपत्नियोंका दृष्टांत भी सर्वथा असिद्ध है क्योंकि दो सपत्नियां दो पदार्थ हैं। यहां पर सत् परिणाम उभयात्मक एक ही पदार्थ है । दूसरे सपत्नीयुग्म विरोधी बनकर आगे पीछे क्रमसे होता है। सत्, परिणाम एककालमें अविरुद्ध रहते हैं । इसलिये यह दृष्टांत हास्यकारक है, इस पर अधिक विचार करना ही व्यर्थ है। * यहां पर समझाने की दृष्टि रख कर निरूपण किया गया है, इसलिये हेतुवाद और अनुमान वाक्यका प्रयोग नहीं किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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