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________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका। [ १०७ विवक्षित दूसरेको अविवक्षित बनाया जाय, परन्तु ऐसा नहीं है। दोनों ही सर्वथा स्वतन्त्र हैं इसलिये बिना एक दूसरेकी अपेक्षाके सिद्ध नहीं होनेवाले सत् और परिणामके विषयमें उक्त दोनों पर्वतोंका दृष्टान्त ठीक नहीं है।। सिंह साधु भी दृष्टान्ताभास है-- नालमसौ दृष्टान्तः सिंहः साधुर्यथेह कोपि नरः । दोषादपि स्वरूपासिडत्वास्किल यथा जलं सुरभि ॥ ३६५॥ नासिद्धं हि स्वरूपासिद्धत्वं तस्य साध्यशून्यत्वात् । केवलमिहरूढिवशादुपेक्ष्य धर्मद्वयं यथेच्छत्वात् ॥ ३६६ ॥ अर्थ-जिस प्रकार किसी पुरुषके सिंह, साधु विशेषण बना दिये जाते हैं, उसी प्रकार सत् और परिणाम भी पदार्थके विशेषण हैं ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यहांपर सत् परिणामात्मक पदार्थ साध्य है, उस साध्यकी सिद्धि इस दृष्टान्तसे नहीं होती है, इसलिये सिंह साधुका दृष्टान्त दृष्टान्ताभास है। इस दृष्टान में स्वरूपासिद्ध दोष आता है यहांपर स्वरूपासिद्ध दोष असिद्ध नहीं है किन्तु साध्यशून्य होनेसे सुघटित ही है। जैसेकिसी पुरुषके रूढिमात्रसे इच्छानुसार सिंह और साधु ऐसे दो नाम रख दिये जाते हैं, उनमें सिंहत्व साधुत्व धर्मोकी कुछ भी अपेक्षा नहीं की जाती है। केवल दो नामोंकी कल्पना कर दी जाती है, परन्तु सत्परिणाम काल्पनिक नहीं है किन्तु वास्तविक है, इसलिये यह दृष्टान्त उभयधर्मात्मक साध्यसे शून्य है । निस प्रकार नैयायिकोंके यहां जलमें सुगन्धि सिद्ध करना असिद्ध है क्योंकि *जलमें सुगन्धि स्वरूपसे ही असिद्ध है इसी प्रकार इस दृष्टान्तमें साध्य स्वरूपसे ही असिद्ध है। भावार्थ-स्वरूपासिद्ध दोषमें कहींपर हेतुका स्वरूप असिद्ध होता है कहीं पर साध्यका स्वरूप असिद्ध होता है । उपर्युक्त दृष्टान्तसे आश्रयासिद्ध दोष भी आता है, क्योंकि सत्परिणामका कोई आश्रय नहीं है। अमि वैश्वानर भी दृष्टान्ताभास हैअग्निवैश्वानर इव नामवेत घ नेष्टसिद्ध्यर्थम् । साध्यविरुद्धत्वादिह संदृष्टेरथ च साध्यशून्यत्वात् ॥ ३६७ ॥ नामदयं किमर्थादुपेक्ष्य धर्मद्वयं च किमपेक्ष्य । प्रथमे धर्माभावेधलं विचारेण धर्मिणोऽभावात् ॥ ३६८ ॥ प्रथमेतरपक्षेऽपि च भिन्नमभिन्नं किमन्वयात्तदिति । भिन्नं चेदविशेषाहुक्त पदमतो हि किं विचातया ॥ ३६९॥ नैयायिमत जलमें गन्ध नह मानता है । इमाय उसाक मतानुसार 'जलं सुरभि । डाल देकर यहाँ समान किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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