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________________ पञ्चाध्यायी। [प्रथम शशङ्का-- संस्कारस्य वशादिह पदेषु वाक्यप्रतीतिरिति चेदै। वाच्यं प्रमाणमानं न नया धुक्तस्य दुर्निवारत्वात् ॥ ३६२ ॥ अथ चैवं सति नियमाद् दुर्वारं दूषणद्वयं भवति। नयपक्षच्युतिरिति वा क्रमवर्तित्वाद्ध्वनेरहेतुत्वम् ॥ ३६३ ॥ अर्थ-ऊपर यह कहा गया है कि विना प्रमाणके स्वीकार किये नय पक्ष भी नहीं ठहर सक्ता है जैसे-विना वाक्य विवक्षाके पड़पक्ष अर्थकारी नहीं ठहरता है। इसके उत्तरमें यदि यह आशंका उठाई जाय कि संस्कारके वशसे पदोंमें ही वाक्यकी प्रतीति मानली जाय तो अर्थात् नयोंमें ही प्रमाणकी कल्पना करली जाय तो ? उत्तरमें कहा जाता है कि यदि नयोंमें ही वाक्य प्रतीति स्वीकार की जायगी तो प्रमाण मात्र ही रहना चाहिये फिर नय सिद्ध नहीं होते हैं । वही दूषण-नय पक्षका अभाव होना बना रहता है। अथवा पदोंमें बाक्य विवक्षाके समान नयोंमें ही प्रमाण पक्ष स्वीकार करनेसे दो दूषण आते हैं। (१) नयपक्षका अभाव होजायगा। क्योंकि नयोंके स्थानमें तो उन्हें प्रमाणरूप माना गया है । क्रमसे होने वाली जो ध्वनि है उसे शाब्दबोधमें कारणता नहीं रहेगी। (२) क्योंकि जब पदोंमें ही वाक्यकी प्रतीति हो जायगी तो एक पदसे ही अथवा एक अक्षरसे ही समस्त वाक्योंका बोध होजायगा, ऐसी अवस्थामें ध्वनिको अर्थ प्रतीतिमें हेतुता नहीं आसकेगी। - विन्ध्य हिमाचल भी दृष्टा ताभास है-- विन्ध्यहिमाचलयुग्मं दृष्टान्तो नेष्टसाधनायालम् । तदनेकत्वे नियमादिच्छानर्थक्यताविवक्षश्च ॥ ३३४॥ अर्थ-विन्ध्याचल और हिमाचल दोनों ही स्वतन्त्र सिद्ध हैं इसलिये एकमें मुख्य विवक्षा दूसरेमें गौण-अविवक्षा हो नहीं सक्ती है । दूसरी बात यह है कि जब दोनों ही खतन्त्र सिद्ध हैं तो एकमें मुख्य और दूसरेमें गौण विवक्षाकी इच्छाका होना ही निरर्थक है, इसलिये विन्ध्याचल और हिमाचल पर्वतोंका दृष्टान्त भी इष्ट पदार्थको सिद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं है । भावार्थ-विन्ध्याचल और हिमाचल दोनों ही जब स्वतन्त्र हैं तो एकमें प्रधानता दूसरेमें अप्रधानता कैसे आसक्ती है ? क्योंकि मुख्य गौण विवक्षाका कारण अभिन्न पदार्थमें दृष्टिभेद है, तथा जहांपर एक धर्म दूसरे धर्मकी अपेक्षा रखता हो, अथवा विना अपेक्षाके वर भी सिद्ध न हो सक्ता हो, वहां पर विवक्षित धर्म मुख्य और अविवक्षित धर्म गौण होता है, विन्ध हिमाचलमें कोई किसीकी अपेक्षा नहीं रखता है, और न विना अपेक्षाके किसीकी असिद्धि ही होती है । यदि विन्ध्याचल विना हिमाचलके न होसके अथवा हिमाचल विना विन्ध्याचलके न हो सके तब तो परस्पर अपेक्षा मानी जाय और इच्छानुसार एकको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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