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________________ सुबोधिनी टीका । अब आचार्य प्रत्येक शंकाका उत्तर देते हैं नैवमदृष्टान्तस्वात् स्वेतरपक्षोभयस्य घातित्वात् । नाचरते मन्दोपि च स्वस्य विनाशाय कश्चिदेव यतः ॥ ३५९ ॥ अर्थ — शंकाकारने ऊपरके श्लोकों द्वारा जो जो शंकाएँ की हैं, तथा जो जो दृष्टान्त दिये हैं वे ठीक नहीं हैं । जो दृष्टान्त दिये हैं वे दृष्टान्त नहीं किन्तु दृष्टान्ताभास हैं । क्योंकि उन दृष्टान्तों से एक पक्षकी भी सिद्धि नहीं होती है। न तो उन दृष्टान्तोंसे शंकाकारका ही अप्रिय सिद्ध होता है । और न जैन सिद्धान्त ही सिद्ध होता है । इसलिये दोनों पक्षोंके घातक होने से वे दृष्टान्त, दृष्टान्त कोटिमें ही नहीं आ सक्ते हैं । कोई मन्दबुद्धिवाला पुरुष भी तो ऐसा प्रयोग नहीं करता है जिससे कि स्वयं उसका ही विघात होता हो । सत् परिणामके विषय में वर्ण पंक्तिका दृष्टान्त ठीक नहीं हैतत्र मिथस्सापेक्षधर्मद्वयदेशितं प्रमाणस्य | माभूदभाव इति नहि दृष्टान्तो वर्णपंक्तिरित्यत्र ॥ ३६० ॥ अर्थ - - सत् और परिणाम इन परस्पर सापेक्ष दोनों धर्मोंको विषय करनेवाला प्रमाण होता है । उस प्रमाणका अभाव न हो इसलिये इस विषय में वर्णपंक्तिका दृष्टान्त ठीक नहीं है । गवार्थ -- वर्णपंक्ति स्वतन्त्र ह । क, ख, ग, घ आदि वर्ण परस्पर एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हुए सिद्ध नहीं है किन्तु पृथक् २ सिद्ध हैं । परन्तु सत् और परिणाम परस्पर सापेक्ष हैं इसलिये वर्णपंक्तिका दृष्टान्त इस विषय में विषम पड़ता है, इन्हीं परस्पर सापेक्ष दोनों धर्मोंको प्रमाण निरूपण करता है । प्रमाणका अभाव हो नहीं सक्ता, कारण वस्तुका स्वरूप ही उभय धर्मात्मक है । उसीको विषय करनेवाला प्रमाण है इसलिये प्रमाण व्यवस्था अनिवार्य है । प्रमाणाभाव में नय भी नहीं ठहरता -- अध्याय । अपि च प्रमाणाभावे नहि नयपक्षः क्षमः स्वरक्षायै । वाक्यविवक्षाभावे पदपक्षः कारकोप नार्थकृते ॥ ३३२ ॥ अर्थ- पहले तो प्रमाणका अभाव किसी दृष्टांतसे सिद्ध ही नहीं होता, दूसरे प्रमाणके अभाव में नय पक्ष भी अपनी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं रह सकता है तथा वाक्य विवक्षाके विना पदपक्ष और कार से भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है । भावार्थ - यदि 'घीका घड़ा लाओ' इस वाक्यकी विवक्षा न रक्खी जाय, और केवल घीका, घड़ा, इन भिन्न २ पदोंका विना सम्बन्ध के स्वतन्त्र प्रयोग किया जाय तो इन पदोंसे तथा षष्ठी और कर्म कारकसे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, निरर्थक ही हैं । इसी प्रकार यदि परस्पर सापेक्ष उभय धर्मको विषय करनेवाले प्रमाणको न माना जाय तो पदार्थके एक अंशको विषय करनेवाला नय भी नहीं ठहर सक्ता है । क्योंकि सम्पूर्ण धर्मोको विषय करनेवाले ज्ञानके रहते हुए ही एक २ धर्मको विषय करनेवाला ज्ञान ठीक होक्ता है, अन्यथा नहीं । पू० १४ Jain Education International १० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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